25 अगस्त, 2015

(दशरथ मांझी नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के चेहरे में दिखा … और सोच की खलबली होती रही )









(दशरथ मांझी नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के चेहरे में दिखा  … और सोच की खलबली होती रही )

सुना था दशरथ मांझी के प्रेम को 
प्रेम ! तलाश ! परिवर्तन !
- यह सब एक पागलपन है 
धुन में सराबोर, झक्की से चेहरे 
पत्थर मारो, या कुछ भी कहो 
धुन के आगे कोई भी रुकावट नहीं होती !
यूँ तो शाहजहाँ की उपमा दी गई है 
लेकिन बहुत फर्क है 
आर्थिक सामर्थ्य और आत्मिक सामर्थ्य में 
… शाहजहाँ ने एक सौंदर्य दिया 
दशरथ मांझी ने सुविधा दी 
सत्य मिथक के मध्य सुना है 
शाहजहाँ ने कारीगरों के हाथ कटवा दिये थे
और मांझी ने अपने को समर्पित कर दिया !

सोचती हूँ प्रेम में डूबा 
पत्थरों को छेनी से तोड़ता मांझी 
उन पहाड़ों से क्या क्या कहता होगा 
क्या क्या सुनता होगा 
फगुनिया के लिए क्या क्या 
कैसे कैसे सोचता होगा !
एक एक दिन को 
उसने कैसे जीया होगा 
अनुमान मांझी तक नहीं जाता 
उन सड़कों पर भी नहीं 
जो दशरथ मांझी के नाम से है  … 
कभी मिलूँगी उन पहाड़ों से 
उसकी आँखों को पढ़ने की कोशिश करुँगी 
जिसमें एक एक दिन के पन्ने हैं  !

08 अगस्त, 2015

याद है तुम्हें ?







ओ अमरुद के पेड़ 
याद है तुम्हें मेरे वो नन्हें कदम 
जो डगमगाते हुए 
खुद को नापतौल कर साधते हुए 
तेरी टहनियों से होकर 
तेरी फुनगियों तक हथेली उचकाते थे  … 

ओ गोलम्बर 
याद है तुम्हें 
वो एक सिरे से हर सिरे तक 
मेरे पैरों का गोल गोल नाचना 
रजनीगंधा की खुशबू का गुनगुनाना  
हँसी की धारा जो फूटती थी 
वो शिव जटाओं से निकली गंगा ही लगती थी 
और तुम गंगोत्री  … 

ओ आँगन 
आज भी एक लड़की 
तेरे किनारे खड़े चांपाकल को चलाती है 
ढक ढक की आवाज़ सुनते हो न ?
दिखती है न वो लड़की 
जो चांपेकल का मुँह बंदकर 
ढेर सारे पानी इकट्ठे कर 
अचानक हटा देती है हाथ 
कित्ता मज़ा आता है न  … याद है न तुम्हें ?

हमें तो अच्छी तरह याद है 
बरामदा,ड्राइंग रूम,आवाज़ करता वहाँ का पंखा 
दो कमरे,एक लम्बा पूजा रूम,
भंडार घर 
रसोई, मिटटी का चूल्हा 
.... 
.... 
आज भी सपनों में चढ़ती हूँ अमरुद के पेड़ पर 
एड़ी उचकाकर फुनगियों को छूने की कोशिश करती हूँ 
फ्रॉक के घेरे में अमरुद लेकर 
आँगन में जाती हूँ !
पानीवाला आइसक्रीम बेचते हुए 
आइसक्रीमवाले का डमरू बजाना 
ननखटाईवाले का काला चेहरा 
मूँगफली वाले की पुकार 
चनाजोर गरम वाले का गाना 
"मैं लाया मज़ेदार चनाजोर गरम"
सब गुजरे कल की बात की तरह 
आज में तरोताजा है  … 
वो फागुन का गीत 
वो ढोलक की थाप 
वो शनिचरी का नमकीन 
वो बगेरीवाले की पुकार !!

आईने में उम्र हो गई 
लेकिन आईने से बाहर 
वो घेरेवाला फ्रॉक याद आता है 
वो ऊँची नीची पगडंडियाँ  … 
कहो पगडण्डी 
वो नन्हीं सी लड़की तुम्हें याद है ?
क्या आज भी तुम वैसी हो 
जैसी उसकी याद में उभरती हो ?

बोलो ना  … 

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...