30 अगस्त, 2014

चैतन्य




मेरा सत्य (असत्य सा निर्जीव)
मेरे अस्तित्व की चेतना बन
वृक्ष की घनी पत्तियों में
सूर्योदय में
गोधुली में
पंछियों के निनाद में
गंगा की अभिलाषा में
शिव जटा में
सरस्वती की वीणा में
पार्वती के तप में
अबोध बच्चे की मुस्कान में
शांत नीरव में
अदृश्य हवाओं में
गर्भ से ही मुक्त कन्याओं में
अशक्त शरीर में
सरगम के सुर में
साईं के निर्लिप्त सहायक भाव में
शहीदों की मजारों पर
कोलाहल की शून्यता में
अंकुरण की प्रत्याशा में
बंजर जमीन पर पड़े बीज में
कृष्ण के मुख के अन्दर
दृश्यमान ब्रह्माण्ड में
राधा के प्रेम में
यशोधरा के दायित्व में
यशोदा के मातृत्व में
अर्जुन के तीर में
कर्ण के दान में
भीष्म की शर शय्या में
एकलव्य की एकाग्रता में
विवेकानंद के शून्य में
..............
निरंतर अहर्निश ज्वलित
चलायमान है
जैसे -  ॐ

24 अगस्त, 2014

क्यूँ? है न ?



जब एक लड़की 
समय के चक्रव्यूह से निकल 
बदहवासी में 
सूखे आँसुओं 
शुष्क फटे होठों से अपनी व्यथा सुना जाती है 
तब … एक महिला -
आलोचक दृष्टि लिए 
उसे सर से पाँव तक देखती है 
सौंदर्य, पहनावा,अंदाज  .... 
सबको एक परीक्षक की तरह 
फिर तब्दील हो जाती है एक उपदेशक में 
और उसके जाते ही 
उसकी ज़िन्दगी 
उसके रहन-सहन का अनुमान लिए 
उसकी धज्जियाँ उड़ा देती है !!!
.... 
एक पुरुष - 
बड़े गमगीन भाव से सब सुनता है 
सूखे आँसुओं को भी बहता देखता है 
अथाह वेदना से भरकर 
उसकी ख़ूबसूरती को आँखों में भरकर 
वह उसके सर पर हाथ रखता है 
चेहरे पर आँसुओं को पोछने की मुद्रा अपनाता है 
लड़की के काँपते शरीर से आकलन करता है 
किस हद तक बढ़ा जाए 
और फिर इस कटी पतंग को 
कब और कहाँ लूटा जाए.. !
.... 
शायद ही कोई उसमें अपनी बेटी देखता है 
शायद ही किसी का दिल दहलता है 
शायद ही कोई उसके हक़ में सोचता है 
शायद ही कोई उसकी व्यथा मन में रखता है 
हादसे पर हादसा ऐसा होता है !
… 
फिर लड़की की उच्छश्रृंखलता 
उसका बिंदासपन क्यूँ नहीं गवारा 
जब वह तथाकथित ममतामई स्त्रियों को 
हिकारत से देखती है 
पुरुषों को सर से पाँव तक तौलती हैं 
तो नहीं लगता तुम्हें 
कि यह अक्स समाज ने उसे दिया है 
समाज ने स्वयं ही अपनी जड़ें हिलाई हैं 
और  .... 
अब इसे परिवर्तन कहो या तबाही 
तुम पर है 
कहते हैं न -
"तेते पाँव पसारिये जेती लंबी सौर"
 चादर के अंदर पाँव है तो परिवर्तन 
बाहर निकला तो तबाही !
क्यूँ? है न ?

21 अगस्त, 2014

तभी - अमर है - साक्षी है !!!





मैं कोई ऋषि मुनि तो नहीं
पर जन्म से मेरे भीतर कोई समाधिस्थ है
कई ज्ञान के रहस्यमय स्रोत उसका स्नान करते हैं
ज्ञान की असंख्य रश्मियाँ उसे सूखाती हैं,तपाती हैं
लक्ष्मी प्रेम रूप में निकट से गुजरती हैं
मुक्त हाथों मोतियों के दान की शिक्षा
वीणा के हर झंकृत तार से सरस्वती देती हैं
श्राप के शब्द उसकी जिह्वा पर नहीं
पर  ……
झूठ, अपमान के विरोध में
जब जब शिव ने उसकी शिराओं में तांडव किया है
अग्नि देवता की लपटें ही सिर्फ दिखाई देती हैं
जिसकी चिंगारियों में 'भस्म' कर देने का हुंकार होता है
सहस्त्र बाजुओं में कई मुंडमाल होते हैं
………………
..........
मैं अनभिज्ञ हूँ इस एहसास से
यह कहना उचित न होगा
ज्ञात है मुझे उस साधक की उपस्थिति
जो द्रष्टा भी है,कर्ता भी है  ....
और इसे ही आत्मा कहते हैं
जिसे अपने शरीर से कहीं ज्यादा मैं जीती हूँ  …
शरीर तो मिथ्या सच है
उसे मिथक की तरह जीना
बाह्य सच है
और यह बाह्य
जब जब अंतर से टकराता है
सुनामी आती है
साधक झेलता है
शरीर गलता है
समय की लकीरें उसे वृद्ध बनाती हैं
!!!
पर समाधिस्थ आत्मा बाल्यकाल और युवा रूप को ही जीती है
स्वस्थ-निरोग
समय के समानांतर
तभी -
वह अमर है -
साक्षी है !!!

11 अगस्त, 2014

मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार




साहित्य का सहज अर्थ है अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपने परिवेश को अपने शब्दों में अपने दृष्टिकोण के साथ पाठकों, श्रोताओं के मध्य प्रस्तुत करना  . पर यदि दृष्टिकोण,शब्द कृत्रिम आधुनिकता या आवेश से बाधित हो तो उसे साहित्य का दर्जा नहीं दे सकते।  साहित्य, जो सोचने पर मजबूर कर दे,उत्कंठा से भर दे।  
प्राचीन ह‍िन्दी साहित्य की परंपरा काफी समृद्ध और विशाल रही है और आज भी है। ह‍िन्दी साहित्य को सुशोभित-समृद्ध करने में मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', रामधारी सिंह 'दिनकर', रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, कबीर, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, रविदास (रैदास), रमेश दिविक, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. धर्मवीर भारती, जयशंकर प्रसाद, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, अज्ञेय, अमीर खुसरो, अमृतलाल नागर, असगर वजाहत, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, आचार्य रजनीश, अवधेश प्रधान, अमृत शर्मा, असगर वजाहत, अनिल जनविजय, अश्विनी आहूजा, देवकीनंदन खत्री, भारतेंदु हरी‍शचंद्र, भीष्म साहनी, रसखान, अवनीश सिंह चौहान आदि का कमोबेश महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मोहम्मद इक़बाल की इन दो पंक्तियों को आज भी हम उदहारण मानते हैं -

"नहीं है नाउम्मीद इक़बाल अपनी किश्ते-वीरां से
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साक़ी"

प्रकृति से जुड़े हैं कवि पंत के साथ -

"प्रथम रश्मि का आना रंगिणी तूने कैसे पहचाना 
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिणी पाया तूने यह गाना"

और रहस्यवाद से छायावाद तक की परिक्रमा करते हैं 

रहस्य का अर्थ है -"ऐसा तत्त्व जिसे जानने का प्रयास करके भी अभी तक निश्चित रूप से कोई जान नहीं सका। ऐसा तत्त्व है परमात्मा। काव्य में उस परमात्म-तत्त्व को जानने की, जानकर पाने की और मिलने पर उसी में मिलकर खो जाने की प्रवृत्ति का नाम है-रहस्यवाद।" 
छायावाद को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शैली की पद्धतिमात्र स्वीकारा है तो नंददुलारे वाजपेयी ने अभिव्यक्ति की एक लाक्षणिक प्रणाली के रूप में अपनाया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे रहस्यवाद के भुल-भुलैया में डाल दिया तो डॉ. नगेंद्र ने 'स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह' कहा। आलोचकों ने छायावाद की किसी न किसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे जानने-समझने का प्रयास किया। छायावाद संबंधी विद्वानों की परिभाषाएँ या तो अधूरी हैं या एकांगी। इस संदर्भ में नामवर सिंह का छायावाद (1955) संबंधी ग्रंथ विशेष अर्थ रखता है। उन्होंने एक नए एंगल से छायावाद को देखा। उनके शब्दों में - 'छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से। इस जागरण में जिस तरह क्रमशः विकास होता गया, इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी विकसित होती गई और इसके फलस्वरूप छायावाद संज्ञा का भी अर्थ विस्तार होता गया।'1

परिभाषाओं से इतर है हमारी कल्पना - जिसमें रहस्य भी है, छायावाद भी, नौ रसों का अद्भुत स्वाद भी  … किसी भी युग का एक दृष्टिकोण नहीं, न धर्म का - अर्थ वही है, जो आपकी दिशा बदल दे, आपको सोचने पर मजबूर करे  … इसी उद्देश्य में मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार -

बातें अनगिनत होती हैं 
कुछ मन को सहलाती हैं 
कुछ बिंधती हैं 
कुछ समझाती हैं  … 
समझते समझते मन को सहलाना खुद आ जाता है
क्योंकि सहलानेवाली बातेँ खत्म हो जाती हैं - अचानक !
इसी समापन के आगे शब्द भाव जन्म लेते हैं 
मन को सहलाते हुए 
कब ये वृक्ष बढ़ने लगते हैं 
कब ख्यालों के पंछी 
अपनी अभिव्यक्ति के कलरव से 
धऱती आकाश गुंजायमान करते हैं  … कुछ भी पता नहीं चलता और एक दिन 'पहचान' मिल जाती है !


इसी ठहराव सी पहचान के लिए मैं कहना चाहती हूँ -

रिश्ता,प्यार,दोस्ती
 सिर्फ इन्हें ही नहीं निभाना होता
अपमान भी निभाना पड़ता है !
प्यार का सम्मान ज़रूरी है 
तो शांति से जीने के लिए 
अपमान का सम्मान कहीं अधिक ज़रूरी है !
निःसंदेह,
अपमान ग्राह्य नहीं होता 
पर जीवन का बहुत बड़ा 
गहन, गंभीर अध्याय 
इसे ग्राह्य बनाता है
कितने भी हाथ-पाँव मार लो विरोध के 
ग्राह्य बनाना पड़ता है !
कोई जवाब देने से पहले 
अपनी अंतरात्मा के घायल वजूद को देखो 
और चिंतन करो 
- कब 
कहाँ 
कितनी बार 
तुमने परिस्थिति के अपमानजनक हिस्से को 
अपनी मुस्कान दी है 
आवभगत किया है  … 
शर्मिंदगी की बात नहीं 
ज़िन्दगी की शिक्षा 
इन्हीं परिस्थितियों की चुभन से मिलती है  … 
जब तक सूरज पूरब की ओर से 
सर के ऊपर तक होता है 
ज़िन्दगी का फलसफा अबोध होता है 
हम - तुम 
बड़ी बड़ी बातें करते हैं 
पर पश्चिम तक बढ़ते 
अस्ताचल तक पहुँचते मार्ग में 
समझौते ही समझौते होते हैं 
 अपमान का गरल पीकर 
नीलकंठ बनकर 
मुस्कुराना ही होता है 
अतिथि देवो भवः कहकर 
घातक दुश्मन को गले लगाना ही होता है 
.... 
मुश्किलों को आसान बनाने के लिए 
अपमान को निभाना ही होता है !!!

सूक्तियों के कोलाहल में मुझे पूछना है - 

अन्याय करना पाप है
तो अन्याय सहना भी  … 
बिल्कुल !
लेकिन अन्याय करना अन्यायी का स्वभाव है 
अन्याय सहना स्वभाव नहीं 
परिस्थिति की न्यायिक माँग है !
कोर्ट में मसले वर्षों की फाइल में मर जाते हैं 
पर जीता हुआ सत्य 
पेट की आग 
परिवार की सूक्ति 
समाज की भर्तस्ना में 
खामोश बुत हो जाता है !
इस बुत पर हाथ उठाओ 
या घसीटते जाओ 
यह मूक रहता है 
हँसी भी इसकी शमशान जैसी होती है 
उसकी भी आलोचना भरपूर होती है  … 
'मेरे टुकड़ों पर पलती है' कहता पति हाथ उठाता है 
निकल जाए जो स्त्री स्वाभिमान के साथ 
तो - कई फिकरे !!!
स्वाभिमान का तमाशा जब होता है 
तब उसके विरोध में कोई कैंडल मार्च नहीं होता 
सबके अपने व्यक्तिगत कारण होते हैं 
'विरोध करके हम अपना रिश्ता क्यूँ बिगाड़ें'
'माहौल नहीं था कहने का'  … 
सही है 
तो  … अन्याय सहने की स्थिति को पाप मत कहो 
यह पाप करने की ताकत में 
सब मिलकर अन्याय का घृत डालते हैं 
यानी पाप करते हैं 
इसलिए ……धर्म के मायने पूछने से पहले 
अपने धर्म का खाता खोलिए 
देखिये, अधर्मी की लिस्ट में आपका नाम तो नहीं !!!

निःसंदेह शिक्षा,परिवर्तन और आधुनिकता का व्यापक शोर है, पर सत्य जो है वह टिमटिमाता हुआ  … कुछ इस तरह,

वर्तमान की देहरी पर 
ख़ामोशी जब भयावह हो उठती है 
तब खोल देती हूँ अतीत के कब्रिस्तान का दरवाजा
दहला देनेवाली चुप सी चीखें 
रेंगता साया 
विस्फारित चेहरों की लकीरें  … 

अतीत और वर्तमान में 
बदलाव तो है 
पर उसी तरह - 
जिस तरह लड़कियों के जीवन में दिखाई देता है !!!
वक्तव्य ठोस - लड़का लड़की समान 
लड़की लड़के से बेहतर !
लड़की कमाने लगी 
पर थकान आज भी एक-दो घरों को छोड़ 
सिर्फ लड़कों की !
दहेज़ की माँग पूर्ववत !
गोरी,काली का भेद नहीं जाता उसकी नौकरी से 
और लड़का -
घी का लड्डू टेढ़ो भलो !!!

परिवर्तन का शोर 
परिवर्तन - 
भाषण और सच के मध्य  बारीक लकीर जैसी … 
लड़कियों का उच्चश्रृंखल अंदाज परिवर्तन नहीं 
कम कपड़े परिवर्तन नहीं 
परिवर्तन है -
नौकरी के लिए घर से बाहर अपनी तलाश 
तलाश के आगे कई सपनों की हत्या !
परिवर्तन है -
लड़की का लड़का बन जाना 
और उस वेशभूषा में सीख -
कुछ लड़की सा व्यवहार करो !

लड़की लड़का सी हो 
या संकुचित सिमटी 
या व्यवहारिक  … 
आलोचना होती रहती है !
हादसे के बाद उसकी इज़्ज़त नहीँ होती 
नहीं होता कोई न्याय 
तमाम गलतियों की जिम्मेदार वही होती है 
माशाअल्लाह 
लड़के में कोई खामी नहीं होती !
वह खून करे 
इज़्ज़त छिन ले 
शराब पीकर,क्रोध में हाथ उठाये 
फिर भी वह दोषी नहीं होता 
परस्त्री को देखे 
तो पत्नी में कमी 
वह बाँधकर रखने में अक्षम है 
पुरुष तो भटकेगा ही !!!

है न परिवर्तन में वही सड़ांध ?
.... हाँ लड़कियाँ पढ़-लिख गई हैं 
देश-विदेशों में नौकरी करने लगी हैं 
…घर से बाहर वह दौड़ रही है अपना अस्तित्व लिए 
घर में कमरे के भीतर वह जूझ रही है 
अपने अस्तित्व के लिए 
यूँ  .... अपवाद कल भी था , आज भी हैं 
उदहारण कल भी था, आज भी है 
परिवर्तन एक शोर है 
संसद भवन जैसा 
जहाँ कोई किसी की नहीं सुनता 
शहरी सियार की हुआ हुआ है 
जो आज भी जंगली है !!!

02 अगस्त, 2014

अंधविश्वास भय नहीं, प्यार है




कोई कुछ कह दे
आशंका के बीज बो दे
तो उसे अंधविश्वास कहते हुए भी
मन का एक छोटा कोना
उसमें उलझ जाता है !  …

याद आता है,
बचपन में जब हम इमली,तरबूज खाते थे
तो माँ कहती थी - "ध्यान से
अगर बीज चला गया पेट में
तो पेड़ उग आएँगे  … "
ओह !
उस वक़्त तो हम हँसते थे
पर अकेले में
मन का भय तरह तरह की कल्पनायें करता
नाक,आँख,कान
सबसे टहनियाँ निकलेंगी
चेहरा - कितना बुरा हो जायेगा !  … !

याद है,
जब मेरे घर में काम करनेवाली ने मुझे डराया
"मैं भूत हूँ
जिस दिन तुम अकेली होगी
मैं तुम्हें पकड़ लूँगी  … "
नन्हीं से उम्र (करीबन ५ वर्ष की)
मैंने ढीढता से जवाब दिया था
"हुंह, मैं भाग जाऊँगी "
लेकिन  … आज भी
अकेले होते मुझे डर लगता है
कहीं वह सच में  .... !

ग्रहण के समय कितनी हिदायतें देते हैं लोग
- ग्रहण के पूर्व खा लेना है
अन्यथा तुलसी पत्ते डाल देना है
नहाकर खाना है
बाहर नहीं जाना है
वगैरह,वगैरह  …
तर्क के अचूक तीर हैं हमारे पास -
क्या पूरी दुनिया का आवागमन बंद हो जाता है
होनी तय है  … इत्यादि
....
लेकिन ,
एक आशंका मन में चहलकदमी करती है
खासकर जब वह अपने बच्चे से जुड़ी हो !
अंधविश्वासी न होकर भी
हम अंधविश्वासी जैसे हो जाते हैं
सिरहाने चाक़ू रख देते हैं
'बुरे सपने न आएँ''
बेवजह किसी की नज़र पर शक करके
मिर्ची घुमाकर नज़र उतार देते हैं
हाथ,जन्मकुंडली सब दिखा लेते हैं
सभी देवी-देवताओं के आगे खड़े हो जाते हैं
जब समय
लम्बे समय तक प्रतिकूल होता है !

कुछ लोग कहते हैं,
अंधविश्वास सिर्फ भय है
और मैं सोच रही हूँ
यह प्यार है  .... '
अपने आप से
औरों से
और विशेषकर अपने बच्चों से  …



दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...