30 दिसंबर, 2014

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं






तबके अलग अलग होते हैं 
यूँ कहो 
बना दिए जाते हैं  … 
कामवाली बाई -
नाम जानकर क्या होगा ?
यह एक दृश्य है स्थितिजन्य  
एक सा - झोपड़पट्टी और ऊँचे घरों का 
कमला,विमला, … जो कह लो  … 
नीचे रो रही है 
घुटने फूटे हुए हैं 
पूछने पर कहती है 
पानी भरने में गिर गई 
आगे बढ़ती हूँ तो दूसरी बाई पूछती है 
क्या कहा उसने ?
… गिर जाने से घुटने फुट गए हैं "
हम्म्म 
गिरेगी ही !
पति छोड़ गया 
एक बेटा है 
ढंग से रहना चाहिए 
तो दोस्ती यारी में लगी है !
इसकी माँ कहती है, शादी कर लो,
तो कहती है - बेटे को वह नहीं देखेगा 
दीदी जी,
बेटे को देखने के लिए बहुत लोग हैं 
पर नहीं  … 
यूँ ही हीहीही करती रहेगी 
सलवार सूट पहनेगी 
.... 
किंकर्तव्यविमूढ़ मैं सुन रही हूँ 
सोच रही हूँ,
सहजता से कुछ भी कह देना 
इलज़ाम लगाना 
कितना आसान होता है 
ऐसे दुरूह रास्तों पर 
गुमराह न होकर भी लोग गुमराह हो जाते हैं !
सही-गलत की परिभाषा 
बड़ी विचित्र है 
एक ही कैनवस में 
एक सी ज़िन्दगी फिट नहीं होती !
बनाये हुए तबके का फर्क जो हो 
कोई सड़क पर गाली देता है 
कोई फाइव स्टार में अश्लीलता पर उत्तर आता है 
अलग अलग चेहरा है 
अलग अलग भाषा 
अलग अलग निष्कर्ष  … 
मुझे उस बाई से हमदर्दी है 
पर कह नहीं सकती 
क्यूँ ?
रहने दो,
मेरे कुछ कहने से क्या होगा 
अपने अपने मन से जवाब मिल ही जायेगा !!!

06 अक्तूबर, 2014

इश्क़




कहीं मुझे इश्क़ न हो जाए   .... !"
इश्क़ होने का डर क्यूँ?
और डरने से भी क्या?
इश्क़ सोचकर होता नहीं
कि उसे वक़्त दिया जाए
.... इश्क़ इंतज़ार भी नहीं करता दूसरे का
अपनी आग खुद जला लेता है
उसकी आँच में तपकर निखरता जाता है !

इश्क़ नहीं ढूँढता प्रतिउत्तर
वह अपनी ख़ामोशी को कहता है
अपनी ख़ामोशी को सुनता है
हीर कह लो
या राँझा
वह अपनी किस्मत आप ही लिखता है
आप ही जीता है
ये अलग बात है कि शोर उसे समेटने को बढ़े
 नुकीले पत्थर बरसाए
जो इश्क़ में डूब जाए
उसे कोई खौफ़ नहीं होता  …

दरअसल इश्क़ अपने सपनों से होता है
काल्पनिक छवि सजीव हो
ऐसा हर बार नहीं होता
पर सजीव हो तो खुद पे ऐतबार होता है !

कौन कहता है इश्क़ को कोई नाम दिया ही जाए
इश्क़ को इश्क़ भी ना कहो
तो भी ओस की बूँदें इश्क़ सी टपकती हैं
इश्क़ सी खूबसूरत हो जाती हैं
सिरहाने छुपकर
आँखों के समंदर की सीप में मोती बन जाने को
हर रात सपनों में उतरती हैं
ज़िद्द बढ़ जाए
तो खुली आँखों में भी सपनों सा खुमार बन जाती है !

इश्क़ न नाम है
न डर
न इंतज़ार
न प्रश्न  … इश्क़ की पूरी जमीन अपनी है
विश्वास के बीज लगाओ
लहलहाती फसलों में गुम हो जाओ  ……………………। 

16 सितंबर, 2014

ये आदतें




कल हम नहीं होंगे 
सोचकर,
…… …… 
अपने दिमाग में भी 
एक घुप्प सन्नाटा होता है 
…।  
ये जो चीज 
मैंने छुपाकर 
संभालकर रखी है 
वो फिर अपने मायने खो देगी 
सरप्राइज़ तो बिल्कुल नहीं रह जाएगा  
और यह जो डायरी सी लिखती हूँ 
नहीं रहने पर 
पता नहीं किस शब्द के क्या मायने हो जाएँ !
लॉकर की चाभी गुम हो गई है 
अचानक नहीं रही 
तो बहुत फेरा हो जायेगा !
अभी कई काम भी निबटाने हैं 
घर अस्त-व्यस्त है 
थकान,दर्द के बावजूद 
ठीक तो करना ही है 
ये दीवारों पर बारिश से चित्तियाँ हो गई हैं 
… ठीक है 
ये मेरा अपना घर नहीं 
लेकिन किराया दे रही हूँ,
कोई आएगा तो रखरखाव में 
मेरी सोच,
मेरे रहन-सहन की ही झलक मिलेगी 
… 
नवरात्रि नज़दीक है 
उससे पहले जितिया 
पूजा के लिए सफाई अभियान शुरू करना है 
… 
यूँ अचानक नहीं रहने पर 
सबकुछ धरा रह जाता है 
जैसे अम्मा का इयरफोन, चश्मा  ....… 

पर धरे रह जाने से पहले तो 
सबकुछ सिलसिलेवार होना ज़रूरी है न 
अम्मा की भी यही समस्या थी 
- एटीएम बदलवा दो 
- इस इयरफोन से ठीक सुनाई नहीं देता 
- सर दर्द - लगता है कुछ हो गया है 
- kbc आने का समय हो तो बताना 
-  एक कॉपी दो, लिख दूँ सवाल -जवाब इसके 
बच्चों के काम आएँगे   … 
… 
अब अम्मा नहीं है 
पर उसकी वे सारी आदतें, 
जिनपर हम झल्ला जाते थे 
टेक लगाकर भीतर बैठ गई हैं  … 
सुनो न अंकू
वो स्टिकर का काम 
वो प्रिंट 
वो  … … … 
देखो न मिक्कू ये काम बाकी है 
खुशबू, जरा वो काम देख लेना 
… पता है समय नहीं 
तुमलोगों को याद भी है 
फिर भी !
अब जवाब हो गया है 
- तुम एकदम अम्मा हो गई हो"
… मुस्कुराती हूँ,
अम्मा की बेटी हूँ न। 
फिर सोच की लहरें आती है 
और लगता है - कह ही लूँ,
भूल जाऊँगी 
.... आजकल भूलने भी लगी हूँ 
वो भी बहुत ज्यादा 
महीने का हिसाब करने के बाद भी 
लगता है,
शायद पैसे देने रह गए हैं 
किसी दिन दे देने के बाद दुबारे दे सकती हूँ !
उपाय निकाला है 
लिख लेती हूँ 
बशर्ते याद रहे कि लिख लिया है !
दीदी गुस्साती है 
'अरे तुम हम सबसे छोटी हो' 
ये तो सच है 
पर भूल जाती हूँ तो क्या करूँ !

अब क्या बताऊँ -
अम्मा बगल में सोने से पहले विक्स 
अमृतांजन,मूव सबकुछ लगाती थी 
नवरत्न तेल भी 
मैं अक्सर कुनमुनाती - 
अम्मा, इस गंध से मैं बीमार हो जाऊँगी 
.... अब रोज सोने से पहले मैं मूव,अमृतांजन लगाती हूँ 
दर्द ही इतना है कंधे में 
लगाते हुए सोचती हूँ 
- अंकू कुछ कहती नहीं 
परेशानी तो होती ही होगी  … 
दिन में कई बार हाथ बढ़ाती हूँ उसकी तरफ 
- उँगलियाँ खींच दो 
पढ़ाई रोककर वह ऊँगली खींचती है 
और मैं - अम्मा की तकलीफें सोचती हूँ 
और पूर्व की बातें 
… 
'क्या सोच रही हो अम्मा?' 
… 'ऐसे ही कुछ,कुछ'
- फ़ालतू सोचने से कुछ होगा ?
???????????
अब मैं सारे दिन कुछ कुछ सोचती हूँ 
अपनी समझ से सार्थक 
दूसरे की दृष्टि से फ़ालतू !!!
सोचते हुए चेहरा अजीब सा बन जाता है 
जगह कोई भी हो - घर,मॉल, खाने की कोई जगह 
.... बच्चे टोकते हैं,
माँ, तुम किसी को नहीं देख रही 
पर लोग तुम्हें देख रहे हैं 
हँसी आ जाती है 
लेकिन अगले क्षण वही हाल !

राशन लेते लेते अचानक 
मोबाइल पर पंक्तियाँ टाइप करने लगती हूँ 
घर जाते कहीं भूल न जाऊँ 
कई बार तो "माँ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$"सुनाई भी नहीं देता 
मुँए ये ख्याल 
जगह ही नहीं देखते 
फिल्म देखते हुए मैं सोचती हूँ 
- खत्म हो, घर लौटूँ तो कुछ लिखूँ !

सामने क्या 
हर कमरे में अम्मा की तस्वीर लगा रखी है 
जिधर जाउँ 
हँसकर कहती हैं 
'क्यूँ ? हो गया न मेरे जैसा?"
मैं मस्तिष्क में ही बड़बड़ाती हूँ 
- हम्म्म हो ही जाता है 
और हो जाने के बाद ही समझ आती है ये आदतें !!

12 सितंबर, 2014

चलो आज मैं तुम्हें माँ की कहानी सुनाती हूँ :)





सुनो
तुम मेरी ज़िन्दगी हो 
धड़कन हो हर चाह की 
माँ के लिए बच्चे से अधिक 
कुछ भी मूल्यवान नहीं होता  … 
हाँ,हाँ जानती हूँ इस बात को तब से 
जब मेरी हर बात में मेरी माँ होती थी 
.... 
चलो आज मैं तुम्हें माँ की कहानी सुनाती हूँ :)

ईश्वर एक दिन बड़ा परेशान था 
उसके पास बहुत सारे काम थे 
और वह सोच रहा था 
कि जब वह किसी कुरुक्षेत्र में 
न्याय-अन्याय की पैनी धार पे होगा 
तो सृष्टि में सूर्य कवच सा कौन होगा सुरक्षा में !
तभी उसकी माँ ने उसके सर पे हाथ रखा 
और कहा - 
जिस माँ के गर्भ से विराट स्वरुप का जन्म हो 
उस माँ की शक्ति से बढ़कर और कौन सी शक्ति होगी ?
माँ कंस से भी नहीं डरती 
9 महीने की सुरक्षा देकर 
जिस अर्थ को वह जन्म देती है 
उस अर्थ के आगे पूरी सृष्टि दुआओं के धागे बाँधती है  … 
ईश्वर मासूम बच्चे सा मुस्कुरा उठा 
और अपनी माँ के ह्रदय से एक माँ की रचना की 
धरती पर भेजकर निश्चिन्त हो गया। 

जानते हो,
माँ जादूगर होती है 
बच्चे की हर अबोली भाषा को समझती है 
उसकी नींद से सोती है, 
जागती है 
पूतना को मार गिराने की 
कंस को खत्म करने की 
धरती-आकाश के विस्तार को नापने की ताकत 
अपने जाये में भरती है 
सीने से लगाकर 
उसकी भूख मिटाकर 
उसमें विघ्नहर्ता सा साहस देती है  … 

तो अब तुम ही कहो 
तुमको रोने की क्या ज़रूरत 
तुम्हारे आगे लक्ष्मण रेखा सी माँ की दुआएँ हैं 
यूँ कहो उससे बढ़कर 
हाँ :) 
तुम भी उसे पार करके तूफ़ान में नहीं जा सकते 
हर आँधी तूफ़ान के लिए माँ का आँचल काफी है 
थपेड़े लोरी बन जाते हैं 
माँ के एक इशारे पर 
राक्षस तक बच्चे को हँसाता है 
तभी तो 
ऐसी हँसी पर ख़ुदा याद आता है 

03 सितंबर, 2014

सरस्विता पुरस्कार परिणाम एवं निमंत्रण




ब्रह्ममुहूर्त में सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा में कई लोग खड़े हुए 
किसी ने पहले देखा 
किसी ने सूक्ष्म अंतर पर देखा 
देखा सबने 
सबकी आँखों में सूर्य था 
कुछ था तो बस सूक्ष्म का अंतर .... यही अंतर है सरस्विता पुरस्कार में
ब्रह्ममुहूर्त सी साहित्यिक प्रतियोगिता हर वर्ष होगी, जब जिसकी दृष्टि में पहले सूर्य कैद हों :):):)
सूरज तो सबका है

परिणाम इस प्रकार हैं - 

संस्मरण - श्रीमती लावण्या शाह (प्रथम)

कविता - श्री ज्योति खरे (प्रथम)

कहानी - डॉ स्वाति पांडे नलावडे (प्रथम)

 बहुत कम अंकों की दूरी पर क्रमशः काव्य विधा में सुश्री सुमन कपूर जी 
और कहानी विधा में श्रीमती संगीता पुरी जी रही हैं, 
तो सराहनीय शुभकामनाओं के साथ हम उन्हें प्रमाण पत्र भेंट करेंगे 

आप सबसे निवेदन है - 19 सितम्बर,2014 को संध्या 7. 00 बजे विमोचन और पुरस्कार समारोह में अवश्य आएँ 

RIVERSIDE SPORTS & RECREATION CLUB, 
MAYUR VIHAR - 1
DELHI - 91 

30 अगस्त, 2014

चैतन्य




मेरा सत्य (असत्य सा निर्जीव)
मेरे अस्तित्व की चेतना बन
वृक्ष की घनी पत्तियों में
सूर्योदय में
गोधुली में
पंछियों के निनाद में
गंगा की अभिलाषा में
शिव जटा में
सरस्वती की वीणा में
पार्वती के तप में
अबोध बच्चे की मुस्कान में
शांत नीरव में
अदृश्य हवाओं में
गर्भ से ही मुक्त कन्याओं में
अशक्त शरीर में
सरगम के सुर में
साईं के निर्लिप्त सहायक भाव में
शहीदों की मजारों पर
कोलाहल की शून्यता में
अंकुरण की प्रत्याशा में
बंजर जमीन पर पड़े बीज में
कृष्ण के मुख के अन्दर
दृश्यमान ब्रह्माण्ड में
राधा के प्रेम में
यशोधरा के दायित्व में
यशोदा के मातृत्व में
अर्जुन के तीर में
कर्ण के दान में
भीष्म की शर शय्या में
एकलव्य की एकाग्रता में
विवेकानंद के शून्य में
..............
निरंतर अहर्निश ज्वलित
चलायमान है
जैसे -  ॐ

24 अगस्त, 2014

क्यूँ? है न ?



जब एक लड़की 
समय के चक्रव्यूह से निकल 
बदहवासी में 
सूखे आँसुओं 
शुष्क फटे होठों से अपनी व्यथा सुना जाती है 
तब … एक महिला -
आलोचक दृष्टि लिए 
उसे सर से पाँव तक देखती है 
सौंदर्य, पहनावा,अंदाज  .... 
सबको एक परीक्षक की तरह 
फिर तब्दील हो जाती है एक उपदेशक में 
और उसके जाते ही 
उसकी ज़िन्दगी 
उसके रहन-सहन का अनुमान लिए 
उसकी धज्जियाँ उड़ा देती है !!!
.... 
एक पुरुष - 
बड़े गमगीन भाव से सब सुनता है 
सूखे आँसुओं को भी बहता देखता है 
अथाह वेदना से भरकर 
उसकी ख़ूबसूरती को आँखों में भरकर 
वह उसके सर पर हाथ रखता है 
चेहरे पर आँसुओं को पोछने की मुद्रा अपनाता है 
लड़की के काँपते शरीर से आकलन करता है 
किस हद तक बढ़ा जाए 
और फिर इस कटी पतंग को 
कब और कहाँ लूटा जाए.. !
.... 
शायद ही कोई उसमें अपनी बेटी देखता है 
शायद ही किसी का दिल दहलता है 
शायद ही कोई उसके हक़ में सोचता है 
शायद ही कोई उसकी व्यथा मन में रखता है 
हादसे पर हादसा ऐसा होता है !
… 
फिर लड़की की उच्छश्रृंखलता 
उसका बिंदासपन क्यूँ नहीं गवारा 
जब वह तथाकथित ममतामई स्त्रियों को 
हिकारत से देखती है 
पुरुषों को सर से पाँव तक तौलती हैं 
तो नहीं लगता तुम्हें 
कि यह अक्स समाज ने उसे दिया है 
समाज ने स्वयं ही अपनी जड़ें हिलाई हैं 
और  .... 
अब इसे परिवर्तन कहो या तबाही 
तुम पर है 
कहते हैं न -
"तेते पाँव पसारिये जेती लंबी सौर"
 चादर के अंदर पाँव है तो परिवर्तन 
बाहर निकला तो तबाही !
क्यूँ? है न ?

21 अगस्त, 2014

तभी - अमर है - साक्षी है !!!





मैं कोई ऋषि मुनि तो नहीं
पर जन्म से मेरे भीतर कोई समाधिस्थ है
कई ज्ञान के रहस्यमय स्रोत उसका स्नान करते हैं
ज्ञान की असंख्य रश्मियाँ उसे सूखाती हैं,तपाती हैं
लक्ष्मी प्रेम रूप में निकट से गुजरती हैं
मुक्त हाथों मोतियों के दान की शिक्षा
वीणा के हर झंकृत तार से सरस्वती देती हैं
श्राप के शब्द उसकी जिह्वा पर नहीं
पर  ……
झूठ, अपमान के विरोध में
जब जब शिव ने उसकी शिराओं में तांडव किया है
अग्नि देवता की लपटें ही सिर्फ दिखाई देती हैं
जिसकी चिंगारियों में 'भस्म' कर देने का हुंकार होता है
सहस्त्र बाजुओं में कई मुंडमाल होते हैं
………………
..........
मैं अनभिज्ञ हूँ इस एहसास से
यह कहना उचित न होगा
ज्ञात है मुझे उस साधक की उपस्थिति
जो द्रष्टा भी है,कर्ता भी है  ....
और इसे ही आत्मा कहते हैं
जिसे अपने शरीर से कहीं ज्यादा मैं जीती हूँ  …
शरीर तो मिथ्या सच है
उसे मिथक की तरह जीना
बाह्य सच है
और यह बाह्य
जब जब अंतर से टकराता है
सुनामी आती है
साधक झेलता है
शरीर गलता है
समय की लकीरें उसे वृद्ध बनाती हैं
!!!
पर समाधिस्थ आत्मा बाल्यकाल और युवा रूप को ही जीती है
स्वस्थ-निरोग
समय के समानांतर
तभी -
वह अमर है -
साक्षी है !!!

11 अगस्त, 2014

मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार




साहित्य का सहज अर्थ है अपनी सभ्यता-संस्कृति,अपने परिवेश को अपने शब्दों में अपने दृष्टिकोण के साथ पाठकों, श्रोताओं के मध्य प्रस्तुत करना  . पर यदि दृष्टिकोण,शब्द कृत्रिम आधुनिकता या आवेश से बाधित हो तो उसे साहित्य का दर्जा नहीं दे सकते।  साहित्य, जो सोचने पर मजबूर कर दे,उत्कंठा से भर दे।  
प्राचीन ह‍िन्दी साहित्य की परंपरा काफी समृद्ध और विशाल रही है और आज भी है। ह‍िन्दी साहित्य को सुशोभित-समृद्ध करने में मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय', रामधारी सिंह 'दिनकर', रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, कबीर, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, रविदास (रैदास), रमेश दिविक, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. धर्मवीर भारती, जयशंकर प्रसाद, डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, अज्ञेय, अमीर खुसरो, अमृतलाल नागर, असगर वजाहत, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, आचार्य रजनीश, अवधेश प्रधान, अमृत शर्मा, असगर वजाहत, अनिल जनविजय, अश्विनी आहूजा, देवकीनंदन खत्री, भारतेंदु हरी‍शचंद्र, भीष्म साहनी, रसखान, अवनीश सिंह चौहान आदि का कमोबेश महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मोहम्मद इक़बाल की इन दो पंक्तियों को आज भी हम उदहारण मानते हैं -

"नहीं है नाउम्मीद इक़बाल अपनी किश्ते-वीरां से
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साक़ी"

प्रकृति से जुड़े हैं कवि पंत के साथ -

"प्रथम रश्मि का आना रंगिणी तूने कैसे पहचाना 
कहाँ-कहाँ हे बाल विहंगिणी पाया तूने यह गाना"

और रहस्यवाद से छायावाद तक की परिक्रमा करते हैं 

रहस्य का अर्थ है -"ऐसा तत्त्व जिसे जानने का प्रयास करके भी अभी तक निश्चित रूप से कोई जान नहीं सका। ऐसा तत्त्व है परमात्मा। काव्य में उस परमात्म-तत्त्व को जानने की, जानकर पाने की और मिलने पर उसी में मिलकर खो जाने की प्रवृत्ति का नाम है-रहस्यवाद।" 
छायावाद को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शैली की पद्धतिमात्र स्वीकारा है तो नंददुलारे वाजपेयी ने अभिव्यक्ति की एक लाक्षणिक प्रणाली के रूप में अपनाया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे रहस्यवाद के भुल-भुलैया में डाल दिया तो डॉ. नगेंद्र ने 'स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह' कहा। आलोचकों ने छायावाद की किसी न किसी प्रवृत्ति के आधार पर उसे जानने-समझने का प्रयास किया। छायावाद संबंधी विद्वानों की परिभाषाएँ या तो अधूरी हैं या एकांगी। इस संदर्भ में नामवर सिंह का छायावाद (1955) संबंधी ग्रंथ विशेष अर्थ रखता है। उन्होंने एक नए एंगल से छायावाद को देखा। उनके शब्दों में - 'छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से। इस जागरण में जिस तरह क्रमशः विकास होता गया, इसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी विकसित होती गई और इसके फलस्वरूप छायावाद संज्ञा का भी अर्थ विस्तार होता गया।'1

परिभाषाओं से इतर है हमारी कल्पना - जिसमें रहस्य भी है, छायावाद भी, नौ रसों का अद्भुत स्वाद भी  … किसी भी युग का एक दृष्टिकोण नहीं, न धर्म का - अर्थ वही है, जो आपकी दिशा बदल दे, आपको सोचने पर मजबूर करे  … इसी उद्देश्य में मेरे कुछ आंतरिक शाब्दिक विचार -

बातें अनगिनत होती हैं 
कुछ मन को सहलाती हैं 
कुछ बिंधती हैं 
कुछ समझाती हैं  … 
समझते समझते मन को सहलाना खुद आ जाता है
क्योंकि सहलानेवाली बातेँ खत्म हो जाती हैं - अचानक !
इसी समापन के आगे शब्द भाव जन्म लेते हैं 
मन को सहलाते हुए 
कब ये वृक्ष बढ़ने लगते हैं 
कब ख्यालों के पंछी 
अपनी अभिव्यक्ति के कलरव से 
धऱती आकाश गुंजायमान करते हैं  … कुछ भी पता नहीं चलता और एक दिन 'पहचान' मिल जाती है !


इसी ठहराव सी पहचान के लिए मैं कहना चाहती हूँ -

रिश्ता,प्यार,दोस्ती
 सिर्फ इन्हें ही नहीं निभाना होता
अपमान भी निभाना पड़ता है !
प्यार का सम्मान ज़रूरी है 
तो शांति से जीने के लिए 
अपमान का सम्मान कहीं अधिक ज़रूरी है !
निःसंदेह,
अपमान ग्राह्य नहीं होता 
पर जीवन का बहुत बड़ा 
गहन, गंभीर अध्याय 
इसे ग्राह्य बनाता है
कितने भी हाथ-पाँव मार लो विरोध के 
ग्राह्य बनाना पड़ता है !
कोई जवाब देने से पहले 
अपनी अंतरात्मा के घायल वजूद को देखो 
और चिंतन करो 
- कब 
कहाँ 
कितनी बार 
तुमने परिस्थिति के अपमानजनक हिस्से को 
अपनी मुस्कान दी है 
आवभगत किया है  … 
शर्मिंदगी की बात नहीं 
ज़िन्दगी की शिक्षा 
इन्हीं परिस्थितियों की चुभन से मिलती है  … 
जब तक सूरज पूरब की ओर से 
सर के ऊपर तक होता है 
ज़िन्दगी का फलसफा अबोध होता है 
हम - तुम 
बड़ी बड़ी बातें करते हैं 
पर पश्चिम तक बढ़ते 
अस्ताचल तक पहुँचते मार्ग में 
समझौते ही समझौते होते हैं 
 अपमान का गरल पीकर 
नीलकंठ बनकर 
मुस्कुराना ही होता है 
अतिथि देवो भवः कहकर 
घातक दुश्मन को गले लगाना ही होता है 
.... 
मुश्किलों को आसान बनाने के लिए 
अपमान को निभाना ही होता है !!!

सूक्तियों के कोलाहल में मुझे पूछना है - 

अन्याय करना पाप है
तो अन्याय सहना भी  … 
बिल्कुल !
लेकिन अन्याय करना अन्यायी का स्वभाव है 
अन्याय सहना स्वभाव नहीं 
परिस्थिति की न्यायिक माँग है !
कोर्ट में मसले वर्षों की फाइल में मर जाते हैं 
पर जीता हुआ सत्य 
पेट की आग 
परिवार की सूक्ति 
समाज की भर्तस्ना में 
खामोश बुत हो जाता है !
इस बुत पर हाथ उठाओ 
या घसीटते जाओ 
यह मूक रहता है 
हँसी भी इसकी शमशान जैसी होती है 
उसकी भी आलोचना भरपूर होती है  … 
'मेरे टुकड़ों पर पलती है' कहता पति हाथ उठाता है 
निकल जाए जो स्त्री स्वाभिमान के साथ 
तो - कई फिकरे !!!
स्वाभिमान का तमाशा जब होता है 
तब उसके विरोध में कोई कैंडल मार्च नहीं होता 
सबके अपने व्यक्तिगत कारण होते हैं 
'विरोध करके हम अपना रिश्ता क्यूँ बिगाड़ें'
'माहौल नहीं था कहने का'  … 
सही है 
तो  … अन्याय सहने की स्थिति को पाप मत कहो 
यह पाप करने की ताकत में 
सब मिलकर अन्याय का घृत डालते हैं 
यानी पाप करते हैं 
इसलिए ……धर्म के मायने पूछने से पहले 
अपने धर्म का खाता खोलिए 
देखिये, अधर्मी की लिस्ट में आपका नाम तो नहीं !!!

निःसंदेह शिक्षा,परिवर्तन और आधुनिकता का व्यापक शोर है, पर सत्य जो है वह टिमटिमाता हुआ  … कुछ इस तरह,

वर्तमान की देहरी पर 
ख़ामोशी जब भयावह हो उठती है 
तब खोल देती हूँ अतीत के कब्रिस्तान का दरवाजा
दहला देनेवाली चुप सी चीखें 
रेंगता साया 
विस्फारित चेहरों की लकीरें  … 

अतीत और वर्तमान में 
बदलाव तो है 
पर उसी तरह - 
जिस तरह लड़कियों के जीवन में दिखाई देता है !!!
वक्तव्य ठोस - लड़का लड़की समान 
लड़की लड़के से बेहतर !
लड़की कमाने लगी 
पर थकान आज भी एक-दो घरों को छोड़ 
सिर्फ लड़कों की !
दहेज़ की माँग पूर्ववत !
गोरी,काली का भेद नहीं जाता उसकी नौकरी से 
और लड़का -
घी का लड्डू टेढ़ो भलो !!!

परिवर्तन का शोर 
परिवर्तन - 
भाषण और सच के मध्य  बारीक लकीर जैसी … 
लड़कियों का उच्चश्रृंखल अंदाज परिवर्तन नहीं 
कम कपड़े परिवर्तन नहीं 
परिवर्तन है -
नौकरी के लिए घर से बाहर अपनी तलाश 
तलाश के आगे कई सपनों की हत्या !
परिवर्तन है -
लड़की का लड़का बन जाना 
और उस वेशभूषा में सीख -
कुछ लड़की सा व्यवहार करो !

लड़की लड़का सी हो 
या संकुचित सिमटी 
या व्यवहारिक  … 
आलोचना होती रहती है !
हादसे के बाद उसकी इज़्ज़त नहीँ होती 
नहीं होता कोई न्याय 
तमाम गलतियों की जिम्मेदार वही होती है 
माशाअल्लाह 
लड़के में कोई खामी नहीं होती !
वह खून करे 
इज़्ज़त छिन ले 
शराब पीकर,क्रोध में हाथ उठाये 
फिर भी वह दोषी नहीं होता 
परस्त्री को देखे 
तो पत्नी में कमी 
वह बाँधकर रखने में अक्षम है 
पुरुष तो भटकेगा ही !!!

है न परिवर्तन में वही सड़ांध ?
.... हाँ लड़कियाँ पढ़-लिख गई हैं 
देश-विदेशों में नौकरी करने लगी हैं 
…घर से बाहर वह दौड़ रही है अपना अस्तित्व लिए 
घर में कमरे के भीतर वह जूझ रही है 
अपने अस्तित्व के लिए 
यूँ  .... अपवाद कल भी था , आज भी हैं 
उदहारण कल भी था, आज भी है 
परिवर्तन एक शोर है 
संसद भवन जैसा 
जहाँ कोई किसी की नहीं सुनता 
शहरी सियार की हुआ हुआ है 
जो आज भी जंगली है !!!

02 अगस्त, 2014

अंधविश्वास भय नहीं, प्यार है




कोई कुछ कह दे
आशंका के बीज बो दे
तो उसे अंधविश्वास कहते हुए भी
मन का एक छोटा कोना
उसमें उलझ जाता है !  …

याद आता है,
बचपन में जब हम इमली,तरबूज खाते थे
तो माँ कहती थी - "ध्यान से
अगर बीज चला गया पेट में
तो पेड़ उग आएँगे  … "
ओह !
उस वक़्त तो हम हँसते थे
पर अकेले में
मन का भय तरह तरह की कल्पनायें करता
नाक,आँख,कान
सबसे टहनियाँ निकलेंगी
चेहरा - कितना बुरा हो जायेगा !  … !

याद है,
जब मेरे घर में काम करनेवाली ने मुझे डराया
"मैं भूत हूँ
जिस दिन तुम अकेली होगी
मैं तुम्हें पकड़ लूँगी  … "
नन्हीं से उम्र (करीबन ५ वर्ष की)
मैंने ढीढता से जवाब दिया था
"हुंह, मैं भाग जाऊँगी "
लेकिन  … आज भी
अकेले होते मुझे डर लगता है
कहीं वह सच में  .... !

ग्रहण के समय कितनी हिदायतें देते हैं लोग
- ग्रहण के पूर्व खा लेना है
अन्यथा तुलसी पत्ते डाल देना है
नहाकर खाना है
बाहर नहीं जाना है
वगैरह,वगैरह  …
तर्क के अचूक तीर हैं हमारे पास -
क्या पूरी दुनिया का आवागमन बंद हो जाता है
होनी तय है  … इत्यादि
....
लेकिन ,
एक आशंका मन में चहलकदमी करती है
खासकर जब वह अपने बच्चे से जुड़ी हो !
अंधविश्वासी न होकर भी
हम अंधविश्वासी जैसे हो जाते हैं
सिरहाने चाक़ू रख देते हैं
'बुरे सपने न आएँ''
बेवजह किसी की नज़र पर शक करके
मिर्ची घुमाकर नज़र उतार देते हैं
हाथ,जन्मकुंडली सब दिखा लेते हैं
सभी देवी-देवताओं के आगे खड़े हो जाते हैं
जब समय
लम्बे समय तक प्रतिकूल होता है !

कुछ लोग कहते हैं,
अंधविश्वास सिर्फ भय है
और मैं सोच रही हूँ
यह प्यार है  .... '
अपने आप से
औरों से
और विशेषकर अपने बच्चों से  …



05 जुलाई, 2014

लड़की है न !






उसे सुनते हुए लगेगा
- वह विद्रोही है
बोलते हुए वह झाँसी की रानी दिखाई देती है
पर इस सुनाई - दिखाई से परे
उसकी बौखलाहट से परे
उसकी असंयत आंतरिक स्थिति के कारण से सब उदासीन हैँ
……… लड़की है न !
 लड़की प्राचीन युग की हो
मध्यकाल की हो
आधुनिकता की सहचरी हो
उसके आस-पास सबक की बस्तियाँ बसी हुई हैं
चेहरे पहचाने हुए हैं !
वही चेहरे
जो कहते हैं -
"तुम्हारा एक वजूद है
अपना अस्तित्व बनाओ - वह ईश्वर की देन है
हारना तुम्हारी किस्मत नहीं
तुम्हारी सोच तुम्हारी किस्मत है"  …
हादसों के बाद
विवाह के बाद
बेटी की माँ बनने के बाद -
    यही चेहरे सख्त हो जाते हैं !
भाषा बदल जाती है !
रस्सी पर नट की तरह चलने के मशविरे
गिरने पर उलाहने
उदाहरणों की भरी बोरियाँ उलटने मेँ
ये चेहरे
अपने को सर्वज्ञानी मान लेते हैं
अपने पूर्वपदचिन्हों को बेदाग बताते हैं  …

सामने जो लड़की है
उसे मान लेना होता है
वर्ना - आत्महत्या,अर्धविक्षिप्तता के रास्ते खुले हैं
और इस विकल्प में भी उपदेश
क्योंकि ....... आखिर में तो वह लड़की है न !

12 जून, 2014

असली जीवन शब्दों में असली मृत्यु शब्दों से !





जिन पर शब्दों का जादू चलता है,
वे शाब्दिक अस्त्र से मारे जाते हैं
शब्द खुद ही होते हैं द्रोण - एकलव्य
अर्जुन-कर्ण
सारथि-भीष्म
शब्द ही पासे
शब्द ही शकुनि
शब्द ही करते हैं चीरहरण
शब्द ही संकल्प उठाते हैं
शब्द ही चक्रव्यूह - अभिमन्यु
और मारक प्रिय जन
असली जीवन शब्दों में
असली मृत्यु शब्दों से !

हास्य एक मृदु रिश्ता भी
हास्य मखौल भी
शब्द और शब्दों के साथ चेहरा
गहन शाब्दिक मायने देते हैं
शब्द शब्द सहलाता है मौन होकर
तो शब्द शब्द नश्तर भी चुभोता है मौन हाहाकार कर
हँसता है शब्द विद्रूप हँसी
रोता है शब्द कातर होकर
शब्दों की अमीरी
शब्दों की गरीबी
आदमी को आदमी बनाती है
आदमी को प्रश्न बनाती है
आदमी को हैवान दिखाती है

तो - शब्दों के ब्रह्ममुहूर्त से
प्रार्थना के शब्द लो
अर्घ्य में अमृत से शब्दों का संकल्प लो
फिर दिन की,जीवन की शुरुआत करो  … 

30 मई, 2014

बंधन और बाँध - में फर्क है !



कोई बंधन में डाले
या हम स्वयं एक बाँध बनाएँ
- दोनों में फर्क है !
तीसरा कोई भी जब रेखा खींचता है
तो उसे मिटाने की तीव्र इच्छा होती है
न मिटा पाए
तो एक समय आता है
जब वह बोझ लगने लगता है !
प्यार, विश्वास का रिश्ता हो
हम उसकी महत्ता समझें
तो हम स्वयं बंध जाते हैं
कोई रेखा खींचने की ज़रूरत नहीं होती !
प्यार और अंकुश का अंतर समझना चाहिए  …
अंकुश की ज़रूरत
वो भी एक हद तक
बचपन में ही होती है
उसके बाद का प्रयास व्यक्ति को
अनायास उच्चश्रृंखल बना देता है
झूठ की उतपत्ति होती है
सम्मान खत्म हो जाता है
....
शर्त,वादे क्यूँ ?
जीतकर क्या ?
वादे ? - न निभाया जाए
तो याद दिलाने
चीखने-चिल्लाने से भी क्या ?
 हम चाहें
तो बिना किसी वादे के
बहुत कुछ कर सकते हैं  !
यह चाह अपनी होती है
यदि कोई और करवाए
फिर - आज न कल
विस्फोटक स्थिति आती ही है !
संस्कार
उदहारण
सब एक विशेष उम्र तक ही दिए जाते हैं
बाद में व्यक्ति स्वयं उदहारण होता है
जय या क्षय का  …

23 मई, 2014

याद है …?


याद है तुम्हें ?
जब पहली बार हमारा परिचय हुआ
तुम खुद में थी
मैं खुद में
फिर भी हम साथ चल पड़े थे  …

याद है न  …

तुम्हें याद है ?
तुम्हारे टिफिन और मेरे टिफिन में कितना फर्क होता था
तुम पूरियाँ लाती थी
मैं रोटी
तुम्हारे टिफिन से खाना मुझे अच्छा लगता था
लेकिन मेरी रोटियों को तुम नहीं छूती थी
मुझे गुस्सा आता
बुरा लगता
और मैं गर्व से कहती
- स्वास्थ्य के लिए यह अच्छा है
तुम्हारी पूरियों को कई बार मैंने भी ठुकराया  …

याद है न  …

क्या कहूँ ?
तुम्हारी सेहत भरी ज्ञान के आगे
मेरी पूरियों का मज़ा किरकिरा हो जाता था !
खैर छोड़ो,
वो समय कितना अच्छा था
विद्यालय का वार्षिक कार्यक्रम था
तुम मद्रासन लड़की बनी थी
मैं काश्मीरी
हम खाने की चीजें बेच रहे थे
खेल में हमने शतरंज चुना
हाहाहा - दो ही थे हम
तुम फर्स्ट हुई
मैं सेकेण्ड
रंगमंच पर जो काव्य-गोष्ठी हुई
तुम हरिवंशराय बच्चन बनी
मैं नीरज
कितना खुशनुमा था सबकुछ - है न ?

हाँ,  …।
आज भी वर्तमान सा सब याद आता है !
पर उसके बाद हम अपनी पढ़ाई को लेकर अलग हो गए
पर डाकिया हमारे खत
एक-दूसरे को देता था

वक़्त द्रुत गति से भागता गया  ....
अब हम सास हैं,नानी-दादी हैं
पर इन झुर्रियों की अनुभवी रेखाओं के पीछे
आज भी वह अल्हड़ शरारती लड़की है
जो बिना शरारत किये नहीं रहती थी  …
… याद है न ?
हाहाहाहा बिलकुल याद है

19 मई, 2014

पहले कोशिश करो



तुमने देखी है दुनिया,
महसूस किया है प्रकृति को,
खुली हवा में ध्यान किया है,
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की तलाश भी की है 
पढ़ा है बहुतों को 
लिखा भी है बहुतों को 
आओ आज एक दिन के लिए हेलेन कीलर बनो 
एक अँधेरे कमरे में बन्द हो जाओ 
कोई सुराख न हो रौशनी की  
बंद कर लो कान 
जिह्वा को कैद कर दो 
और पंछी के परों पर रखो हथेलियाँ 
गर्मी से सूखे होठों पर 
पानी की एक 
बस एक बूंद रखो 
………………फिर  सन्नाटे को बिंधती अपनी धड़कनो के साथ 
उसे सोचो  … सोचते जाओ 
शायद पूरे आकाश का आभास हो 
या पूरी नदी का 
छोड़ दो  खुद को निःशब्द अँधेरे समंदर में  … 
… हेलेन कीलर तो नहीं हो सकोगे 
पर पंछी के परों की अद्भुत व्याख़्या कर सकोगे 
पानी की शीतलता रूह तक जानोगे 
एक अंश हेलेन की दुनिया लिख सकोगे - 
वो भी शायद !
पढ़ना, लिखना, और जीना - 
तीन आयाम हैं - तीनों अलग 
सुनना, और उसे दुहराना - पूरी कहानी बदल जाती है 
हम न एक जैसा देखते हैं 
न एक जैसा पढ़कर, सुनकर लेते हैं 
फिर हेलेन का शाब्दिक चित्र कैसे बना सकते हैं  ?
एक अंश हुबहू के करीब जाने के लिए 
वक़्त,परिवेश  … बहुत कुछ खोना पड़ता है 
पहले यह तो कोशिश करो !

12 मई, 2014

आम और खास से परे - सच कहा न ?



मैं आम नहीं
पर उसी समूह में रहती हूँ
दिन और रात को जीने के लिए !
मैं खास भी नहीं
जिसे तुम नाम से पहचान लो …
मैं -
आम और खास से परे एक रहस्य हूँ !
ढाल लिया है मैंने अपने आप को
एक किताब में
जिसके पन्नों से आवाज आती है  …
मैं एक बोलनेवाली किताब हूँ
जिसे तुम चाहोगे पढ़ना
पर वह तुम्हें सुनाई देगा
वह भी, मेरी आवाज में !
तुम पढ़कर सुनाना भी चाहो किसी को
तो तुम्हारी धड़कनों से प्रतिध्वनित होकर
तुम्हारे स्वर में मेरी ही आवाज गूँजेगी  !
मेरे शब्द तुम्हारे अन्तर में समाहित होकर
उसकी बनावट बदल देंगे
तब तक -
जब तक तुम मुझे पढ़ोगे
और सोचोगे
… अतिशयोक्ति नहीं होगी
यदि कहूँ
कि खुद को ढूँढ़ते रह जाओगे !
उदहारण ले लो -
प्रेम !
कहते हैं लोग,
प्रेम फूल और भँवरा है
यह कथन
मात्र एक अल्हड़ उम्र का ख्याल है
उस उम्र से आगे
समय कहता है
प्रेम ईश्वर भी है,राक्षस भी
प्रेम अनश्वर है तो नश्वर भी
चयन तुम्हारा
नियति तुम्हारी
परिणाम अदृश्य  …
विश्वास हो तो भी प्रेम मर जाता है
शक हो तो भी प्रेम जी लेता है
प्रेम वक़्त का मोहताज नहीं
प्रेम अकेला भी सफ़र कर लेता है
कोई प्रेम के बाद भी प्रेम करता है
तार्किक अस्त्र-शस्त्रों से
सही होता है
पूर्ण होता है
दूसरी तरफ
कोई एक प्रेम का स्नान कर अधूरा होता है !
हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं चाह्ते
इससे अलग एक पटरी होती है ज़िन्दगी की
जिसके समतल-ढलाव का ज्ञान मौके पर होता है
दुर्घटना - तुम्हारी असफलता हो
ज़रूरी नहीं
अक्सर सफलता के द्वार उसके बाद ही खुलते हैं
.... पर अगर तुमने असफलता को स्वीकार कर लिया
तो मुमकिन है
सफलता तुम्हारे दरवाजे तक आकर
बिना किसी दस्तक के लौट जाये !
आश्चर्य की बात मत करो
हतोत्साहित सिर्फ़ तुम नहीं होते
सफलता भी हतोत्साहित होती है
उसका इंतजार न हो
तो वह अपना रूख मोड़ लेती है !
पाना-खोना
हमारे परोक्ष और अपरोक्ष सत्य पर निर्भर है !
तुम-हम जो सोचते और देखते हैं
वह सच हो - मुमकिन नहीं
.... सच को देखना
सच का होना
दृष्टि,मन, मस्तिष्क की चाक पर
घूमता रहता है
रुई की तरह धुनता जाता है
अंततः जब उसका तेज समक्ष होता है
उसकी तलाश में रहनेवाले गुम हो जाते हैं
या याददाश्त कमजोर हो जाती है
या  … सत्य अर्थहीन हो जाता है !
आँख बंद होते
जिस सच को हम सजहता से कह-सुन के
स्वीकार करते हैं
वहाँ शरीर से पृथक हुई आत्मा
अट्टाहास करती है
फिर सिसकती है
इस अट्टाहास और रुदन में कई अबोले सच होते हैँ
जो दिल की धड़कन रोक कर
शरीर को साथ ले जाते हैं !
मैंने उस अट्टाहास और रुदन के बीच
अपने आप को एक गहरी खाई में देखा है
पहाड़ों से टकराकर आती प्रतिध्वनित सिसकियों में
स्नान किया है
फिर रेत में विलीन शब्द ढूँढे हैँ
एहसासों की चाक पर उन्हें आकृति दी है
… जो पूर्ण नहीं होते
कोई न कोई हिस्सा टेढ़ा रह जाता है
या दरका हुआ
पर शायद जीवन की पूर्णता इसी अपूर्णता में है
क्यूँ ? सच कहा न ?

08 मई, 2014

पाप पुण्य से परे



जीवन में सच हो या झूठ
- दोनों की अपनी अपनी कटुता है !

सच को अक्षरशः कहना संभव नहीँ होता
बात सिर्फ साहस की नहीं
दुविधा मर्यादा की होती है  …
फिर झूठ से सच की निर्मम हत्या हो ही जाती है !
सच सिर्फ़ यह नहीं
कि - सात फेरे सात वचन निभाने चाहिए
सच यह है कि इसे निभाने के लिए
झूठ की ऊँगली थामे
98 प्रतिशत लोग झूठे चेहरे लिए
चलते हैं,जीते हैं -
समाज,
परिवार,
बच्चे  .... इन कटु सच्चाईयों के लिए
और यह स्त्री-पुरुष दोनों की विडंबना है  !.
कारण भी पूर्णतः नहीं बता सकते
कभी जिह्वा कटती है
कभी हिम्मत नहीं होती
और कभी कहने की जुर्रत की
तो विरोध की हिकारत
- 'इस तरह खुद को जलील करने की ज़रूरत क्या है ?'
चुप्पी में सच की दर्दनाक स्थिति
हँसी में झूठ की निर्लज्जता
'काहू बिधि चैन नहीं'

हादसों का सच !!!
कौन कह पाता है ?
 खुलासे से तबीयत बिगड़ जाती है
यूँ भी खुलासे में सिर्फ़ अश्लीलता होती है
दर्द मर चुका होता है !
लोग नहीं जानें - इस ख्याल में
शहर बदल जाता है
नाम बदल जाता है
.... पूरा परिवेश बदल जाता है !
अंदर में सच हथौड़े चलाता है
झूठ
पत्थर और जीवन के बीच
भटकता जाता है !
…।
सच और झूठ - दोनों की अपनी मजबूरियाँ हैँ
पाप-पुण्य से परे

24 अप्रैल, 2014

ये जीना भी कोई जीना है !!!




हम जो बोलते हैं
उसे तौलते भी जाते हैं
मन इंगित करता रहता है
-ये है सही और ये गलत
गलत को दिखाती मन की ऊँगली
हम धीरे से हटा देते हैं
या फिर तर्कों से भरा ज़िद्दी अध्याय खोल लेते हैं
अपनी बात रखते हुए
सही को काटते हुए
अंततः हम वहाँ पहुँच जाते हैं
जहाँ से लौटना अपमानजनक लगने लगता है !
तटस्थता में हम घुटने लगने लगते हैं
'यह मेरी गलती थी' - इसे कहने में वर्षों लगा देते हैं
जानते हुए भी
कि इसकी घुटन हमें ही जीने नहीं दे रही !!
गलती का एक रास्ता भारी पड़ता है
फिर क्यूँ दोराहे, चौराहे बनाना ?
ज़िद्द की कोई उम्र नहीं होती
वह तो वही दम तोड़ देती है
जहाँ वह जन्म लेती है !
मृत भावनाओं को पालने से
उसकी राक्षसी भूख मिटाने से
कुछ नहीं मिलता
सिवाए बंजर जमीन के
और वहाँ कोई मृगतृष्णा भी नहीं होती
सारे जीवनदायी भ्रम तक खत्म हो जाते हैं
साँसें चलती हैं
तो जी लेते हैं
पर ये जीना भी कोई जीना है !!!

11 अप्रैल, 2014

किसे ?






एक लम्बी सी चिट्ठी लिखना चाहती हूँ 
बहुत कुछ लिखना चाहती हूँ 
पर कोई ऐसा नाम जेहन में नहीं 
जिससे धाराप्रवाह सबकुछ कह सकूँ  … 
 चीख लिखूँ 
 डर लिखूँ 
सहमे हुए सन्नाटे लिखूँ 
सूखे आँसुओं की नमी लिखूँ 
बेवजह की खिलखिलाहट लिखूँ 
लिखूँ आँखों में उतरे सपने  … 
सोच रही हूँ नाम 
कौन होगा वह 
जो बिना किसी प्रश्न,तर्क कुतर्क के 
पढ़ेगा मेरी चिट्ठी 
और समझेगा !
कुछ दूर चलकर ही 
सुनने-समझने की दिशा बदल जाती है 
क्योंकि हर आदमी 
अपना प्रभावशाली वक्तव्य सुनाना चाहता है !
चिट्ठी छोटी सही 
छोटा सा मेसेज ही सही 
पढ़ने की फुर्सत नहीं 
पढ़ने लगे,सुनने लगे 
तो सलाह-मशविरे बीच से ही शुरू 
- पूरा कोई नहीं पढता 
सुनना तो बहुत दूर की बात है -
ज़िन्दगी स्केट्स पर है 
यह काम,वह काम 
यह ज़रूरत,वह ज़रूरत 
भावनाओं को समझने की बात दूर 
कोई सुनता भी नहीं 
भावनाएँ - बकवास हैं !
फिर प्रश्न तो है न कि 
अपनी बकवास किसे सुनाऊँ ?!

01 अप्रैल, 2014

नफ़रत से विरक्ति




नफ़रत ....!!!
हुई थी एकबारगी मुझे भी
शायद उम्र का तकाजा था !
पर जैसे जैसे उम्र
या शायद अनुभवों की उम्र बढ़ी
मैंने खुद को टटोला
नफ़रत का कोई अंश नहीं मिला
व्यक्ति,स्थान,परिस्थिति..
जिनसे मुझे नफरत हुई थी
उनका नामोनिशां तक नहीं मिला
तब जाना -
उन सब से मुझे विरक्ति हो गई
!
न स्थान बदलता है
न परिस्थिति
न व्यक्ति ....
तो उदासीन,विरक्त होना ही जीने की कला है
प्रतिक्रिया से परे
न उसकी उपस्थिति असर डाले
न अनुपस्थिति
.....
नफ़रत एक आग है
जो बुझती नहीं
और जब तक वह जलती है
न हम खुद को जी पाते हैं
न दूसरों के जीने को सहज ढंग से ले पाते हैं
तो इस आग से विरक्त होना श्रेयष्कर है
विरक्त मन निर्विकार हो जाता है
और निष्क्रियता सक्रियता में बदल जाती है ...
....
आसान नहीं होता
पर समय के हथौड़े
अंततः बेअसर होने को बाध्य कर देते हैं
या ..... हम याददाश्त को बदल लेते हैं !
कारण जो भी हो ...
नफरत बीमारी है
और प्राकृतिक सोच की दवा विरक्ति
जहाँ सच सच होता है
झूठ .......... एक मुस्कान दे जाता है
और कभी कभी खिलखिलाहट -
सुकून होता है - कि मोह और वैराग्य दोनों का पलड़ा बराबर है !!!

16 मार्च, 2014

तुम्हारे नाम हस्ताक्षर



कुछ खुमारी में डूबे शब्द हैं 
कुछ अंगड़ाई लेते पल 
कुछ दिन हैं, कुछ शाम 
कुछ सुबह, कुछ जागी रात 
एक ही दिशा में अटके कुछ ख्याल 
कुछ धरती, कुछ आकाश 
चुटकी भर क्षितिज का मिलन 
पंछियों की उड़ान 
कबूतर की गुटरगूं 
…………… सपनों का मिश्रीवाला घर 
जलतरंग की मीठी धुन 
लहरों का आवेग 
नदी की कलकल ध्वनि 
संध्या की धीमी रागिनी 
पलकों का टिपिर टिपिर मटकना 
गौरैये का फुदकना 
मुर्गे की बाँग 
आम बौर की मादक सुगंध 
थोड़ी फागुनी भांग 
…… 
मेरा बचपन 
मुझमें जीनेवाली सपनोवाली लड़की 
बारिश में नंगे पाँव छप छप दौड़ती लड़की 
खुले बाल हवा में इठलाती लड़की 
तुम्हारे नाम अपने हस्ताक्षर करती है 
अपने सुकून के लिए !
संभव है -
 तुम्हें ज़रूरत न हो 
फिर भी ख्यालों की प्यास बुझाने के लिए 
और कालांतर में समझने के लिए 
… हस्ताक्षर का क्या हुआ !!!
 है एक हस्ताक्षर - तुम्हारे नाम 

12 मार्च, 2014

अंतर्द्वंद !



'अपशब्द' दिलोदिमाग में नहीं उभरते
ऐसी बात नहीं
पर कंठ से नहीं निकलते
व्यक्तित्व के गले में अवरुद्ध हो जाते हैं !
'जैसे को तैसा' ना हो
तो मन की कायरता दुत्कारती है
पर वक़्त जब आता है
तब  .... एक ही प्रश्न कौंधता है
'इससे क्या मिल जाएगा !'
सही-गलत के बीच
मन पिसता जाता है
अपने ही सवाल हथौड़े सी चोट करते हैं -
'क्या यह गलत को
अन्याय को बढ़ावा देना नहीं ?'
मन का एक कोना हकलाते हुए कहता है
'क्या फर्क रह जाएगा फिर उसमें और मुझमें !'
यह आदर्श है ?
संस्कार है ?
या है पलायन ?
रही बात रिश्तों को निभाने की
तो एकतरफा रिश्ते होते कहाँ हैं !
इसी उधेड़बुन में उड़ जाती हैं रातों की नींदें
'हैल्युसिनेशन' होता है
हर जगह 'मैं' कटघरे में खड़ा दिखता है !
मन न्यायाधीश
मन गवाह
आरोप-प्रत्यारोप - आजीवन !
सच भी बोला है,
झूठ भी  …
सच कहूँ तो पलड़ा बराबर है
तो,
मैं भी तो पूर्णतया सही नहीं
बस अपशब्द कहने की गुस्ताखी कभी नहीं की !
क्या सच में कभी नहीं ???

08 मार्च, 2014

अपनी दृष्टि घुमाओ - अपनी स्वर्णिम गाथा लिखो



आज महिला दिवस है,
दिवस की सार्थकता के लिए
सुनो ऐ लड़की
तुम्हें जीना होगा
और जीने के लिए
नहीं करना कभी हादसों का जिक्र
क्योंकि उसके बाद जो हादसे होते हैं
पारिवारिक,सामाजिक और राष्ट्रीय
उसमें तुम्हारे हादसे
सिर्फ तुम्हें प्रश्नों के कटघरे में डालते हैं !

तुम आज भी
जाने कैसे सोचती हो
कि तुम्हारी चीखों से भीड़ स्तब्ध हो जाएगी
निकल आएगा कोई भाई उस भीड़ से
और तुम्हारी नक्कारा इज्जत के लिए
लड़ जाएगा आततायिओं से
याद रखो,
सच्चाई फिल्मों सी नहीं होती
और अगर कभी हुई
तो उसके परिवार के लोग तुम्हें कोसेंगे
फिर दूर दूर तक कोई गवाह नहीं होगा
और नहीं होगी कोई राहत की नींद तुम्हारी आँखों में  …

इन लड़ाइयों से बाहर निकलो
और जानो
इज्जत इतनी छोटी चीज नहीं
कि किसी हादसे से चली जाए !
इज्जत तो उनकी नहीं है
जो तुम्हें भूखे भेड़िये की तरह खा जाने को आतुर होते हैं
खा जाते हैं
उस हादसे के बाद
वे सिर्फ एक निकृष्ट,
हिंसक
 हैवान रह जाते हैं !

इस सत्य को जानो
अपने संस्कारों की अहमियत समझो
भीख मत माँगो न्याय की
अपना न्याय स्वयं करो
- अपने रास्तों को पुख्ता करो
अगली चाल में दृढ़ता लाओ
मन में संतुलन बनाओ
फिर देखो किसी की ऊँगली नहीं उठेगी
नहीं खुलेगी जुबान !

तुम अपनी दृष्टि घुमाओ
यह जो दिवस तुम्हें मिला है
उसे वार्षिक बनाओ
एक युग बनाओ  ....

यूँ सच भी यही है कि नारी एक युग है
जिसने घर की बुनियाद रखी
आँगन बनाया
बच्चों की पहली पाठशाला बनी
पुरुष की सफलता का सोपान बनी

दुहराने मत दो यह कथन
कि - अबला जीवन हाय  ....
आँसू उनकी आँखों में लाओ
जो तुम्हारी हँसी छीनने को बढ़ते हैं
स्वत्व तुम्हारा,अस्तित्व तुम्हारा
कोई कीड़ा तुम्हारी पहचान मिटा दे
यह संभव नहीं
उठो,
मुस्कुराओ
मंज़िल तुम्हें बुलाती है
निर्भीक बढ़ो
इतिहास के पन्नों पर
अपनी स्वर्णिम गाथा लिखो

28 फ़रवरी, 2014

मृत्यु के बाद



जन्म के बाद मृत्यु
तो निःसंदेह मृत्यु के बाद जन्म
कब कहाँ जन्म
और कहाँ मृत्यु
सबकुछ अनिश्चित   … !
कल्पना का अनंत छोर
जीने का प्रबल संबल देता है
साथ ही
मृत्यु की भी चाह देता है
चाह निश्चित हो सकती है
हो भी जाती है
पर परिणाम सर्वथा अनिश्चित
!!!
प्रयास के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं !!!
……………………
चलो एक प्रयास हम कल्पना से परे करें
मृत्यु के बाद का सत्य जानें
यज्ञ करें
विज्ञान की ऊँगली थाम आविष्कार करें
मृत शरीर की गई साँसों की दिशा लक्ष्य करें
सूक्ष्म ध्वनिभेद पर केन्द्रित कर सर्वांग को
…आत्मा में ध्यान की अग्नि जला
असत्य की आहुति दे
उस सूक्ष्मता को उजागर करें
…।
पाप-पुण्य की रेखा से परे
ईश्वरीय रहस्य को जाग्रत करना होगा
एक युग
एक महाकाव्य
एक महाग्रंथ का निर्माण करना होगा
जन्म-मृत्यु
इन दोनों किनारों को आमने-सामने करना होगा
संगम में मुक्ति है
तो उसी संगम में ढूंढना होगा
प्रेम का तर्पण
त्याग का तर्पण
मोह का तर्पण
प्रतिस्पर्धा का तर्पण
कुछ यूँ करना होगा
मृत्यु के पार सशरीर जाकर
आत्मा से रूबरू होना होगा -

22 फ़रवरी, 2014

कहानी कुछ और होगी सत्य कुछ और



मैं भीष्म
वाणों की शय्या पर
अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
या  ....... !
अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
विवेचना कर रहा हूँ ?!?

एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलता
और दूसरी तरफ मैं
.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञा
मात्र मेरा कर्तव्य था ?
या - पिता की चाह के आगे
एक आवेशित विरोध !

अन्यथा,
ऐसा नहीं था
कि मेरे मन के सपने
निर्मूल हो गए थे
या मेरे भीतर का प्रेम
पाषाण हो गया था !
किंचित आवेश ही कह सकता हूँ
क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा शांत तट से नहीं ली जाती !!
वो तो मेरी माँ का पावन स्पर्श था
जो मैं निष्ठापूर्वक निभा सका ब्रह्मचर्य
.... और इच्छितमृत्यु
मेरे पिता का दिया वरदान
जो आज मेरे सत्य की विवेचना कर रहा है !

कुरुक्षेत्र की धरती पर
वाणों की शय्या मेरी प्रतिज्ञा का प्राप्य था
तिल तिलकर मरना मेरी नियति
क्योंकि सिर्फ एक क्षण में मैंने
हस्तिनापुर का सम्पूर्ण भाग्य बदल दिया
तथाकथित कुरु वंश
तथाकथित पांडव सेना
सबकुछ मेरे द्वारा निर्मित प्रारब्ध था !

जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !

कर्ण का सत्य
ब्रह्मुहूर्त सा उसका तेज  …
कुछ भी तो मुझसे छुपा नहीं था
आखिर क्यूँ मैंने उसे अंक में नहीं लिया !
दुर्योधन की ढीढता
मैं अवगत था
उसे कठोरता से समझा सकता था
पर मैं हस्तिनापुर को देखते हुए भी
कहीं न कहीं धृतराष्ट्र सा हो गया था !
कुंती को मैं समझा सकता था
उसको अपनी प्रतिज्ञा सा सम्बल दे
कर्ण की जगह बना सकता था
पर !!!
वो तो भला हो दुर्योधन का
जो अपने हठ की जीत में
उसने कर्ण को अंग देश का राजा बनाया
जो बड़े नहीं कर सके
अपनी अपनी प्रतिष्ठा में रहे
उसे उसने एक क्षण में कर दिखाया !

द्रौपदी की रक्षा
मेरा कर्तव्य था
भीष्म प्रतिज्ञा के बाद
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को मैं बलात् ला सकता था
तो क्या भरी सभा में
अपने रिश्ते की गरिमा में चीख नहीं सकता था !
पर मैं खामोश रहा
और परोक्ष रूप से अपने पिता के कृत्य को
तमाशा बनाता गया !

अर्जुन मेरा प्रिय था
कम से कम उसकी खातिर
मैं द्रौपदी की लाज बचा सकता था
पर अपनी एक प्रतिज्ञा की आड़ में
मैं मूक द्रष्टा बन गया !
मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
कि इस कुरुक्षेत्र की नींव मैंने रखी
और अब -
इसकी समाप्ति की लीला देख रहा हूँ !

कुछ भी शेष नहीं रहना है
अपनी इच्छितमृत्यु के साथ
मैं सबके नाम मृत्यु लिख रहा हूँ
कुछ कुरुक्षेत्र की भूमि पर मर जाएँगे
तो कुछ आत्मग्लानि की अग्नि में राख हो जाएँगे
कहानी कुछ और होगी
सत्य कुछ और - अपनी अपनी परिधि में !

21 फ़रवरी, 2014

इससे खूबसूरत पश्चाताप और कोई नहीं …



कहीं कुछ मेरे स्वभाव के विपरीत हुआ
मैंने ओढ़ ली चुप्पी की चादर
जबकि मुझे बोलना था
… मेरा मन बोल भी रहा था
बोलता ही है- समय-असमय
मैं सुनती रहती हूँ !!!
किसी स्पष्टीकरण की ज़रूरत भी नहीं
क्योंकि अपने सच के एक एक धागे को
मैं बखूबी पहचानती हूँ
कोई और समझेगा क्या ?
इतनी खुली समझ होती
तो दोराहे,तिराहे,चौराहे
आपस में उलझते नहीं !
जब दिशा ज्ञान ही भ्रमित हो उठा
तो शिकायत कैसी ?
किससे ?
कुछ नया तो हुआ नहीं है
जो शोर किया जाए !
ऊँगली उठाने का कोई अर्थ नहीं
अपने मन के धरातल को बखूबी देखना ज़रूरी है
कहाँ थी समतल भावनाएँ
कहाँ छोड़ दी गई काई
कहाँ रखे थे बातों के कंकड़
खुद का मुआयना कर लें
कुछ परिवर्तन ले आएँ
इससे खूबसूरत पश्चाताप और कोई नहीं  …
परिवर्तन का सूत्र उठाए
खड़ी हूँ रेगिस्तान में
धूल का बवंडर उठता है
तो रास्ते दुविधा में डाल देते हैं
कहाँ से चले थे
कहाँ जाना है - सब गडमड हो जाता है
पर मुझे पहुँचना तो है न तुम तक
 बाधाएँ कितनी भी हों
…… मुझे पहुँचना है उस मोड़ पर
जहाँ से अपने से एहसास की खुशबू आती है
....
मुझे खुद पर यकीन है
यकीन है कि मैं पछतावे की अग्नि शांत कर लूँगी
तुम्हारे चेहरे पर एक गाढ़ी मुस्कान दे जाऊँगी
तुम्हें भी यकीन है न ?-

17 फ़रवरी, 2014

शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो





शब्द नुकीले शीशे से भी होते हैं
फिर
लहुलुहान घटनाओं का ज़िक्र
शीशे से क्यूँ ? !

होना था जो हादसा
वह तो हो गया
जिसे जाना था
वह चला भी गया
अब उसका वर्णन
वह भी शीशे जैसे शब्दों से
घाव को भरने की बजाय
खुरचने की प्रक्रिया है !
वर्षों तक  …
ज़ख्म भरते नहीं
नहीं जागता कोई हौसला
बस भयावह दृश्य ही रह-रहकर डराते हैं !

न्याय के लिए चीखो
'कैंडल मार्च' करो
आवाज़ों का आह्वान करो
पर निर्वस्त्र दृश्यों की चर्चा कर
उनके घर की नींव मत हिलाओ
जहाँ यह हादसा हुआ है
मत छीनो मासूम आँखों के सपने !

टायर जलाने से
किसी निर्दोष के रास्ते ही धुएँ से भरते हैं
जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया
जिस कुर्सी से अन्यायी फैसला हुआ
व्यर्थ में उन्हें क्यूँ असुरक्षित करना
जिनके घर के आगे उनके माता-पिता
प्रतीक्षित चहलकदमी करते रहते हैं !

तुम साथ हो
यह जताने को
कोमल शब्दों का स्पर्श दो
दूर से वो आगाज़' करो
कि मन में विश्वास उत्पन्न हो
भय से निस्तेज आँखों में
प्राणसंचारित करते सपने भर जाएँ
शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
शूल नहीं !!!

04 फ़रवरी, 2014

शाश्वत निशाँ




मैं प्यार करती हूँ
हाँ हाँ तुमसे
शरीर की परिधि से परे
गहरे
मन की प्रत्यंचा पर
साधती हूँ अपने सपने
…… लक्ष्य - प्रेम
यानि तुम
और भर उठता है प्रेम उद्यान
ख्याल,विश्वास की गरिमा से  !
प्रेम उद्यान में शरीर एक नश्वर भाग है
जिसमें मन की साँसों से
प्राण-संचार होता है
तो यह मन करता है प्यार
देखता है निर्विघ्न -
तुम्हारी आँखों में
आँखों की सीढ़ियाँ उतर
तुम्हारे मन की दीवारों पर लिखे अपने ही नाम को
छूता है हौले से
डर तो लगता है न
कि कहीं मिट न जाए
……
मन तुम्हारे मन की ऊँगली थाम
भीड़ की आँखों से अदृश्य
अपने और तुम्हारे मन की पवित्र प्रतिमा की
करता है परिक्रमा
आँखों से निःसृत होती है शंख ध्वनि
हौले से जो मैं कहती हूँ
तुम कहते हो
मैं सुनती हूँ
तुम सुनते हो
वह मंत्र सदृश्य सत्य शिव सा सुन्दर होता है
प्रेम अश्रु बन जाता है प्रसाद
और साथ साथ चलते
बनते हैं शाश्वत निशाँ
हमारे  … 

01 फ़रवरी, 2014

एक और दिन जी जाने की मुहर




दरवाजे रोज खोलती हूँ
फिर भी जंग लगे हैं
शायद - इसलिए कि -
मन के दरवाजे नहीं खुलते !!!
तभी, अक्सर
ताज़ी हवाओं का कृत्रिम एहसास होता है
दम घुटता है
कुछ खोने की प्रक्रिया में !
कुछ खोना नहीं चाहता मन
पर इकतरफा पकड़ भी तो नहीं सकता
और  … मैं
प्रत्याशा की भोर में
खोलती हूँ सारे दरवाजे
बहुत शोर होता है
पंछी उड़ जाते हैं भयाक्रांत
मन की हथेली पर रखे दाने
रखे ही रह जाते हैं
.... सोचती हूँ,
बंद रहना,जंग खाना
अपनी विवशता का परिणाम है
या इनके हिस्से की नियति है यह !
वजह जो भी हो,
मैं हर दिन उम्मीदों की तलाश लिए
सोच की धुंध से लड़ती हूँ
ठंड लगने लगती है
शरीर अकड़ जाता है
मन कुम्हला जाता है
पर - मैं हार नहीं मानती !
बचपन से अब तक
आशाओं की चादर बड़ी घनी बुनी है
सिलाई उधड़े
- सवाल ही नहीं उठता !
जानती हूँ
मानती हूँ
रिश्ते बेरंग हों
तो उनको कोई शक्ल देना
बहुत मुश्किल है
अपनी जद्दोजहद से अलग
अपनों के सवालों की जद्दोजहद से भी गुजरना पड़ता है
बार-बार कटघरे में
एक ही जवाब देते-देते ऊब जाता है मन
साँचे में भी रखा रिश्ता
आकारहीन, बेशक्ल हो जाता है
और -
फिर,
अपना ही घर अजायबघर लगता है
चरमराते खुलते दरवाजे की आवाज से
माथे पर पसीना छलछला उठता है
....
कई बार सोचता है मन
कि आज धूप से कट्टी कर लूँ
पर - सुबह,दिन,शाम,रात से परे
जिंदगी खिसकती नहीं
उलझन ही सही -
वो भी ज़रूरी है
एक और दिन जीने के लिए
जी जाने की मुहर लगाने के लिए !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...