25 जून, 2012

कब , कहाँ , क्यूँ का उत्तर



धूप छाँव
दिन रात
सुख दुःख
हँसी उदासी ......... सब अपने अपने हिस्से को जीते हैं
कभी बारिश नहीं होती
कभी बेमौसम बरसात से
आँखें फटी की फटी रह जाती हैं !
संकरे रास्ते सुख के भी दुःख के भी
खुला मैदान हँसी के लिए भी उदासी के लिए भी
....
मिलना तो सब है
कब कहाँ क्यूँ - तय नहीं
पर वक़्त आता है
स्थान भी आता है
और क्यूँ ? ...... अंतरात्मा समझती है .
..........
कई बार हम सज़ा के हकदार नहीं होते
पर अत्यधिक अच्छाई भी कटघरे में होती है
जानने के लिए
कि अपनी अच्छाई में आपने जिनका साथ दिया है
वे उसके पात्र नहीं थे
तो गुण जाए न जाए संगत से
सज़ा मिलती ही मिलती है !
.......
पानी से भरा घड़ा ईश्वर थमाता है
उन प्यासों के लिए
जिनकी प्यास बुझाना धर्म है
पर जो एक एक जीवनदायिनी बूंद के लिए
बेमौत मारते हैं
उनकी प्यास मिटाना
उनकी आसुरी शक्ति को जिंदा रखना है
और - इसकी सजा मिलती है
मिलनी भी चाहिए !

श्रद्धा , विश्वास की कीमत
एकलव्य का अंगूठा नहीं
शिष्य की निष्ठा के आगे द्रोण की समझ थी
एकलव्य को ईश्वर ने सब दिया
पर एकलव्य ने अपनी भक्ति के अतिरेक में
द्रोण के इन्कार को भी श्रेष्ठ बना दिया ...
तो अंगूठा - कब , कहाँ , क्यूँ का उत्तर था
सिर्फ एकलव्य के लिए नहीं
हम सबके लिए !

24 जून, 2012

बीते दिन लेकर मैं चल पड़ी हूँ ....



आदरणीय अम्मा ,
सादर प्रणाम !

आशा करती हूँ तुम पहले से बेहतर होगी
हमलोग सकुशल हैं .
पहले के शांत दिनों को लौटाने का यह एक प्रयास है ....
दिन लौटेंगे या नहीं
इस पर कैसा चिंतन -
प्रयास है और यकीन है
कि यादों के गीत गाती स्मृतियाँ
जो दुबकी हैं कहीं
वे सुगबुगायेंगी
मुस्कुरा कर झाँकेंगी
और कितने सारे गीत जो डायरी में गुम से हैं
उन यादों के होठों पर थिरकेंगी
नमकीन आंसुओं की मिठास लिए
कई घंटे रिवाइंड कर देंगी !
....
आज पापा का जन्मदिन है
पापा ऊपर जा बैठे हैं तो क्या
शुभ दिन का खाना तो हम बनाते हैं न
आँखें खुलते ही एक दूजे को याद कर लेते हैं
और यादों का पिटारा खोल लेते हैं ...
......
मेरे बच्चों ने तो पापा को देखा भी नहीं
पर नाना के जन्मदिन की ख़ुशी मनाते हैं
पास हों या दूर , व्यस्त हों या खाली
संस्कारगत आँखों को बन्द कर
नाना को प्रणाम कर लेते हैं ....
उन्हें मालूम है - आशीष तो मिलना ही मिलना है ....
....
वो सीतामढ़ी , तेनुघाट , और जगदेव पथ का घर
आज भी गले लगाता है
घर का हर कोना प्यार जताता है
शहंशाही अंदाज में आज भी तुम कहती हो -
गीत सुनाओ ....
और मेरा रिकॉर्ड प्लेयर शुरू .
मैंने महसूस किया है -
अपने अपने एकांत में
शोर के अकेलेपन में सब गाते हैं
आधुनिकता कितनी भी हो
वक़्त कितना भी आगे आया हो
गीतों की पिटारी को सबने सम्भाल रखा है
उम्र की थकान हो
या खराश हो
गाने की ख़ुशी आज भी मंद मीठी हवा सी लगती है !
..........
कमी , बुराई तो हर घर में होती है
लड़ाई भी जम के होती है
फिर यह क्या ख़ास बात हुई
जो इसकी ही चर्चा चलती रहे
घमासान लड़ाई के बाद भी दुआ हमारे होठों पे होती है
सबकी प्यारी बातें हमें याद रहती हैं
बोलें न बोलें - धूप परछाईं होते चेहरे
आज भी वही आलम जगाते हैं ...
...
उन्हीं यादों में डूबी अभी अभी गाया है -
' गोद में तेरी सुनी जितनी कहानियाँ
बनके रहेंगी दिल में तेरी निशानियाँ ... '
आँखों से जितने आंसू बहे , गला जितना रुंधा
उतना सुकून मिला है साथ होने का
बहुत देर होती रही है धमाचौकड़ी
तब जाकर बैठी हूँ चिट्ठी लिखने
डाकिया बन तुम तक खुद आ रही हूँ
तबीयत ठीक रखो
बीते दिन लेकर मैं चल पड़ी हूँ ..... यह कहते हुए कि बड़ों को प्रणाम , छोटों को प्यार , शेष फिर .................

तुम्हारी प्यारी बेटी





20 जून, 2012

माँ की प्रतिध्वनि साथ रहती है ...



अँधेरे में
जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था
'हाथ पकडे रहना ....' चीखते हुए
आंसुओं से सराबोर
एक माँ ....

कोई ऐसा ताखा नहीं था
न कोई दीवार
न दरवाज़ा
न मिट्टी
न शून्य ................
जहाँ से उसने ईश्वर को नहीं उठाया
अपने बच्चों की खातिर !

ऐसी माँ
लोगों को भले ही साइकिक
हास्यास्पद नज़र आ जाए
संदेहास्पद जीत के लिए
भले ही झूठ के कई घड़े उसके सर पे रख दिए जाएँ
वह हारती नहीं है ....
उद्देश्य कई हों
तो मंथन होता है रास्तों के लिए
पर जिस माँ के लिए
मात्र उसके बच्चे उद्देश्य हों
वह लोगों के कुत्सित विचारों का मंथन करती जाती है
और रास्ते खुद ब खुद निकल जाते हैं !
.....
ऐसी माँ -
धरती , आकाश , निवाला
सब बन जाती है
अपने बच्चों के लिए
वह पाताल भी नापकर आती है !
शांत चेहरे से एक ही आवाज़ उभरती है -
माँ एक अवतार होती है
युग कोई भी हो
माँ आधार होती है
.........
अपने आंसुओं को वह भूल सकती है
अपनी ख्वाहिशों का गला घोंट सकती है
पर अपने बच्चे की एक एक सिसकियों का हिसाब रखती है
रात भर लोरी बन
साथ चलती है
अँधेरे में वह अपने बच्चों पर जब चीखती है
तो एक एक चीख में सुरक्षा की दुआ होती है
जब माँ कमरे में बंदकर बच्चे को डराती है
तो उसके पीछे एक ही चाह होती है
- बन्द रास्तों की चेतावनी !
....
ऐसी माँ -
' हाथ पकड़े रखना ' की चीख के साथ
बच्चों का विश्वास बनती है
कि आँधियाँ कैसी भी हों
कैसे भी हों तूफ़ान
वे सुरक्षित हैं ... माँ साथ है

सच है ,
किसी को नज़र आए न आए
बच्चों के हर कदम के आगे
माँ की प्रतिध्वनि साथ रहती है ...

18 जून, 2012

सिकंदर वही होता है !



जो जीता वही सिकंदर
पर हर परिणाम सत्य तो नहीं होता !
अधिकतर सत्य तो बस एड़ियां उचकाता रह जाता है
और परिणाम अपनी मंशा की सत्यता पर इतराता है !
एक सच सत्य का होता है
एक सच झूठ का
.... जीत गया था अर्जुन
कुशल योद्धा भी था
पर कर्ण के आगे फीका था !
सिकंदर अर्जुन कहलाया
पर दुनिया क्या
अर्जुन भी जानता था
कृष्ण को भी ज्ञात था
कि असली सिकंदर कर्ण ही था
.....
किसी भी कहावत का एक ही अर्थ नहीं होता
कह देने से मान्य नहीं होता
जहाँ जीत का पैमाना छल हो
वहाँ हारी हुई बाज़ी के आगे भी
सिकंदर ही होता है
यदि यह सत्य न होता
तो अभिमन्यु को हम हारा हुआ मानते
और चक्रव्यूह की कथा यूँ अमर न होती !
...
पूरब से उगता सूरज डूबता तो है हर दिन
पर फिर आनेवाले कल में
पूरब पर उसी का आधिपत्य होता है
मन ही मन जिसे मानो
सिकंदर वही होता है !

16 जून, 2012

जो भी कहना सच कहना ....



घबरायी सी वह लड़की
तुम्हारे दरवाज़े भी तो आई होगी
सच कहना -
उसके दर्द को तुमने स्नेह का एक ग्लास पानी थमाया
उसकी भयभीत पुतलियों में अपने होने का विश्वास दिया
भूख से कातर उसके सम्मानित वजूद को
बिना उसके कहे
सम्मान से गुंथे आंटे की रोटी दी !
या .............
तुमने उसे अपनी मानसिकता के तराजू पर रखा
उसके बेबस चेहरे के पीछे डूबे सौन्दर्य को देखा
और आगत की संभावनाएं रच डाली
एक रोटी के साथ कई कटोरियों में
एहसान की सब्जियां परोस
हाथ में झाड़ू पकड़ा दिया
एक पुरानी साड़ी के बदले
उसकी पूरी ज़िन्दगी पर अधिकार ज़माने का मन बना लिया
उस ज़िन्दगी पर
जिसे वह किसी चंगुल से छुड़ा तुम तक आई थी !
और निकल गए तुम पड़ोसियों के पास
और अपनी महानता की कहानी सुनाने लगे
वह कहानी ..... जिसे सुन पडोसी ईर्ष्या से भर उठे
और सोचने लगे थे -
काश ! यह मुफ्त की एहसानमंद
मेरे हाथ आती .....
.......
एक रोटी - जिसे कुत्ते के आगे तुम फ़ेंक देते हो
पर जब ' बचाओ ' की गुहार लिए कोई लड़की
तुम्हारे घर के दरवाज़े खटखटाती है
तो तुम पाई पाई का हिसाब रखते हो
और जिस नरक से वह भागती है
उससे कई गुणा बड़ा नरक उसे देकर
दाता बन जाते हो ...
...
दाता - स्त्री हो या पुरुष
तुम सबसे सवाल है
- जो भी कहना सच कहना ....
बेहतर हो खुद से कहना
अन्यथा - उपरवाला तो सारे हिसाब किताब रखता ही है !

14 जून, 2012

आजमा कर देखो



नहीं हो सकते मुक्त
जब तक हो खामोश
जीतने की प्रखरता हो
और हो हार स्वीकार
.... नहीं हो सकते मुक्त
सत्य असत्य का फर्क मालूम है
पर हों जुबां पर ताले
नहीं हो सकते मुक्त
भय की आगोश में भी
किसी उम्मीद की मुस्कान हो
नहीं हो सकते मुक्त
.......
मुक्त होना चाहते हो
ऐसे में
यदि जीत नहीं सकते
तो खेलो ही मत
धरती पर हिकारत से फेंके गए
अधिकार और कर्तव्य के टुकड़े उठाने से बेहतर है
चोरी करो ....
यूँ भी तुम चोर कहे जाते हो
तुम्हारी हर बात झूठ है
तो झूठ बोलो ....
देखना लोग विश्वास करने लगेंगे
और तुम अपनी जकड़न से मुक्त
खिलखिलाकर हँस सकोगे ..... इस मुक्ति को आजमा कर देखो

11 जून, 2012

मारो गोली उम्र को



जब पहली सफेदी उतरी थी
यूँ कहें दिखी थी ....
तो मन के भीतर एक बुलबुला उठा था
तोड़ने को हाथ बढ़ाये ही थे
कि किसी ने कहा - यह माँ का प्यार होता है
बचपन से कहीं छुपा रहता है
कभी कभी दिखता है ....
गुरुर बन उठा था वह एक सफ़ेद बाल
गाहे बगाहे ढूंढते
कहीं गुम तो नहीं हो गया !
जिसे नहीं मिलता
वह ऊपर से सहज
अन्दर से विकल ...
माँ का प्यार एक बाल में
वो भी सफ़ेद बाल पर निर्भर हो जाता !
किसी किसी को देखा तीसमारखां बनते
- बकवास है यह सब कहते हुए उस बाल को तोड़ते
... सफ़ेद बाल फिर उग आए
साथ में एक और सफ़ेद !
.... तब जाना
यह बाल तोड़ने से रोकने का प्यारा सा नुस्खा था
....
खैर ! उम्र को तो तोड़ा नहीं जा सकता
उम्र बढ़ती गई , कुछ और सफेदी बढ़ी
भरी पार्टी में कोई पूछता चटखारे लेकर
' बालों पर चांदी उतरने लगी ? '
मन के युवा सोच , सपने बुरा मान जाते
भला ये क्या बात हुई !
लेकिन चटखारों से , बुरा लगने से उम्र को क्या मतलब
आँखों की रौशनी हल्की होने लगी
घुटने दुखने लगे
अधिक तेल का असर स्वास्थ्य पर पड़ा
तो उस एक बाल पर प्यार आया -
बेचारे ने तो घंटी बजाई ही थी
माँ की तरह सतर्क किया था
हम हीं एक एक साल घटा
तीस पर अटके हुए थे !
जब ब्लड का प्रेशर बढा
डॉक्टर ने कहा - आफ्टर थर्टी होता है ...
तो कहा दूसरों से - बेवकूफ ! कुछ भी बोलता है
इस साल तो तीस पर पहुँचे हैं .... !
कोई कहता - पच्चीस से अधिक नहीं लगती उम्र
तो धीरे से अट्ठाईस मानने में सुकून मिलता
आईना भी एक इशारे में मान जाता
........
अब घटाने का सवाल ही ख़त्म हो गया
कुर्सी से उठने में
आगे कदम बढ़ाने में सच जोर जोर से बोलने लगा
रोकने के लिए घूरो
तो एक आह ! जो निकलती है
वह कहती है - मारो गोली ...
40 , 50 , 55 क्या फर्क पड़ता है
बेहतर है 60 ही - कम से कम उम्र के सम्मान में
हाफ टिकट तो मिलेगा
...

09 जून, 2012

फिर से खुद को खोजा जायेगा !



खुद की तलाश में
जाने कितनी सीढ़ियाँ चढ़ गईं
साँसें फूलने लगी तो लगा
बहुत दूर निकल आई ....
नीचे देखा तो खाई थी
ऊपर और उंचाई
जो पानी लेकर चली थी
वह खत्म हो चला था !
आशान्वित नज़रों से आकाश को देखा
बादल का एक श्यामल टुकड़ा ही दिख जाए
कौवे का , सियार का ब्याह हो
तो बिना बादल बरसात हो जाए ...
पर आह !
आकाश का स्वच्छ नीलापन
हलक में घरघराने लगा
खुद को पाने की तलाश के आगे
अँधेरा छाने लगा !

अधर में खड़ी काया
क्या खोया क्या पाया से परे
आशंकित हो चली थी -
नीचे गिरी तो अब उठने का हौसला नहीं
शब्दों के तिनकों का सहारा भी नहीं !
उम्र थी तो शब्दों का हौसला देवदार सा लगता था
सूरज भी अपनी मुट्ठी में लगता था
अब तो मुट्ठी बंधती ही नहीं
और सूरज नए कलेवर नए अंदाज में
आज भी अड़ा है ...

ठहरो ठहरो - कुछ दिख रहा है
एक टुकड़ा बूंद का हलक में गिरा है
टुकड़े टुकड़े ज़िन्दगी में एक छाया वट सी दिखी है
मुमकिन नहीं तो नामुमकिन भी नहीं
उसकी झलक अपनी सी लगी है !
.................................
इस एहसास के दृश्य पर टेक लगा लूँ
जिन पंछियों ने घोसले बनाये हैं
उनके गीत सुन लूँ ...
आगे तो अनजाना विराम खड़ा है
जीवन की समाप्ति का बोर्ड लगा है
होगी अगर यात्रा
तो देखा जायेगा
मृत्यु के पार कोई आकाश होगा
तो फिर से खुद को खोजा जायेगा !

06 जून, 2012

उदाहरण



मैं उदाहरण न थी न हूँ ...
होना भी नहीं चाहती !
उदाहरण बनने की चाह में
कई बार मरी हूँ !
कभी उंचाई से गिरी
कभी अग्नि के बीच जली
कभी विश्वास के चक्रव्यूह में
घुट घुट कर अर्धजीवित रही
....
उदाहरण होने के लिए
सिर्फ देना होता है
सामनेवाला कितना भी मज़ाक करे
मुस्कुराना होता है
एक मज़ाक अपनी तरफ से किया
दूसरा मौका हाथ नहीं आता !
दूसरे ने भले ही थप्पड़ मारा हो
गलती अपने अन्दर ढूंढना होता है
पाँचों उँगलियों के निशां भले ही उभर आए हों
कहना कुछ और होता है
सच का उदाहरण किस्सी को भी रास नहीं आता
जज भी मुंह फेर लेता है
क्यूँ न फेरे -
सच तो सच होता है
तो रिश्वत नहीं देता
और बिना रिश्वत के कुर्सी का मोल नहीं
और न ही सत्य का !
वह ज़माना और था
जब एक सच के लिए
आन बान और शान के लिए
लोग आग में कूद जाते थे
अब तो उदाहरण की एक गंध पर
ऐसे लोग आग में धकेल दिए जाते हैं
जो रोते हैं
उनकी आँखों में भी शिकायत होती हैं
- समझाया था ..... !!!
अब शुभचिंतक समझाते हैं -
सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद बनने की क्या ज़रूरत ?
क्या ज़रूरत है दूसरों के मामले में पड़ने की !
अरे उनके घर का व्यक्तिगत मामला है
बहू को मारें या भाई की हत्या करवाएं
......... अपने काम से काम रखो ....
अब उदाहरण वे होते हैं
जो अंधे , बहरे , गूंगे होकर चलते हैं
और .... तब
बेहतर है - उदाहरण न बनूँ
........... ओह ,
बहुत भारी भरकम है यह शब्द !

05 जून, 2012

क्या क्या छूट गया !



हिदायतों का समय गुजर गया
चलो अपने शब्दों की डोक्युमेनट्री फिल्म में
तुम्हें वो पल दिखाएँ
जिनके मायने थे
देखो गौर से क्या क्या छूट गया ...

चिलचिलाती धूप
पसीने से तरबतर मुस्कान
तितली पकड़ने का उन्माद
कच्चे टिकोलों की मिठास
हरि लिच्चियों की चोरी
फिर उमेठे कान का दर्द ....
सुबह देता जब मुर्गा बांग
दर्द हो जाता छूमंतर
नई शरारत की योजना बल्लियों उछलती
मिट्टी से सने पैरों में घर की खुशियाँ मचलती
थोड़ी सी डांट
बहुत सा दुलार .....
छूट गया सब ऊँची बिल्डिंग के पीछे !

नए कपड़े जब आते
तो पीछे कोने में हल्दी लगा
शुभ शुभ की दुआ करते थे अपने ....
जो हर कामयाबी में
बहुत मायने रखते थे
पर वे देहाती ढकोसले की तोहमत में लुप्त हो गए !

दलिद्दर भगाने का वह सहज तरीका
लक्ष्मी कम ही सही
सुकून से ठहरती थीं ...
पडोसी के बच्चे की उत्तीर्णता पर
एक एक घर में दावत
खुशियों का सीना चौड़ा कर जाता था
मृत्यु में
अनजान के घर से भी हर दिन का भोजन
दर्द को सहने की ताकत देता था
परम्पराओं को निभाने की उर्जा देता था
और एक रिश्ता जोड़ता था
गाँव की बेटी - सबकी बेटी
पूरा मोहल्ला मायका सा होता था
घर की बूढ़ी दाई के भी पैर छुए जाते थे
आशीषों का गहरा अर्थ हुआ करता था ....
आधुनिक बनकर तो हम पछिया हवा से हो गए हैं !

पूजा पाठ में सात्विक नियमितता
एक पवित्र एहसास देता
पूजा घर में नंगे पाँव जाना
हाथ धोकर वहाँ से कुछ उठाना
फूल , अगरबत्ती , प्रसाद .... अर्थहीन नहीं थे
व्यस्क बातों में एहतियात
बड़ों के सम्मान में खड़े होना
हमारे खूबसूरत संस्कार थे
अब तो अश्लील शब्द आम हो गए
प्रश्न है - तो इसमें क्या है ? !

तो इसमें क्या है' का उत्तर सरल है
पर जब हम मानना ही नहीं चाहें
तो प्रत्युत्तर में चीखने से भी क्या है !
एक एक तेज स्वर
हमारी ही गरिमा मिटा रहे
चीखते चिल्लाते
लीक से हटते हटते
हम सब बदशक्ल हो गए हैं !

कृत्रिम प्रसाधनों का बोलबाला है
पर उसमें संस्कार नहीं होते
न ही होता कोई मासूम जादू
जो हमें सभ्य सौम्य दिखा दे
बनाना तो दूर की बात है !

अधनंगे शरीर ...
दादा नाना पिता भाई - किसी से कोई परहेज नहीं !
अब आँखें नहीं बोलती
ख़ामोशी नहीं बोलती
अब सबकुछ शरीर बोलता है
और शरीर के द्विअर्थी संवाद
दूसरे की मानसिकता !

हम इतने खुलेआम हो चुके हैं
कि गलत सही का फर्क नहीं रहा
पर्दानशीं को बेपर्दा करने का मामला रफा दफा हो गया
अब तो - चाहत का जाम है
चियर्स कहो और अपनी धज्जियां खुद उड़ा लो
और हर धज्जी से यूँ देखो
कि जिसे भी इज्ज़त और जान प्यारी है
वह कुछ कहने का साहस ना करे ...

अब सारी खरीदफरोख्त पैसे से है
समय , मस्ती , ख़ुशी . हवा
.... जीतना है
हर हाल में जीतना है
धक्का देकर ही सही !
बेहतर है !!!
क्या क्या छूट गया की चिंता के लिए भी वक़्त नहीं
अभी शकुनी के पासे हैं हाथ में
तो जीत का जश्न मनाओ कमरे में
बाहर सिर्फ सन्नाटा है
बड़े बुज़ुर्ग , बच्चे , पडोसी, ब्रह्ममुहूर्त , लोरी , कहानी .....
कहीं कोई नहीं , कुछ भी नहीं है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!






03 जून, 2012

इंतज़ार कैसा ?





समझौतों के तपते रेगिस्तान में
सबके चेहरे झुलसे हैं
अपनों के न्याय की तलाश में
साँसें दम्मे सी उखड़ी हैं ......
कहीं जाकर क्या मिलेगा भला ?
झूठी हँसी हंसने से
क्या ज़िन्दगी पुख्ता लगती है
या हो जाती है ?

बाह्य प्रसाधन प्रचार में ही फर्क लाते हैं
सूखे बेबस होठ
जिन्हें पानी की तलाश हो
उनकी भाषा रंगकर नहीं बदली जा सकती
जिन आँखों के आगे
खून की नदी बही हो
उनमें काजल डाल देने से
उजबुजाता भय छुप नहीं जाता !
क्यूँ बेवजह भाषणों से उनके दिल दिमाग को रेत रहे
थोड़ी ज़मीर बची हो
तो ...... पानी लाओ
और उनके हाथ तोड़ डालो
जो बेशर्मी से खून की होली खेलते हैं
कभी अपनों को जलाकर
कभी अपनों को काटकर ....

अखबारी समाचार तो खटाई हो जाते हैं
मधुमक्खी सी भीड़ जहाँ देखो
समझ लो
कोई पीटा जा रहा है
या कोई मर गया है ....
भीड़ न बचाती है
न किसी को खबर देती है
बस मज़े लूटती है
और अफवाह फैलाती है !

इन अफवाहों में किसी की बेटी अपनी लगी है
तड़पते शरीर में कोई अपना दिखा है
पंखे से लटके प्रतिभाशाली लड़के में
मृत व्यवस्था की दुर्गन्ध आई है
.... जिस दिन ऐसी घटनाओं से हमारी तुम्हारी नींद उड़ेगी
रोटी में अवाक लड़की नज़र आएगी
हल्की हवा में किसी युवा की सिसकी सुनाई देगी
उस दिन
परिवर्तन के लिए कोई मशाल नहीं जलाई जाएगी
ना ही कोई भीड़ होगी
बल्कि परिवर्तन की आहट अपने अपने दिलों से निकलेगी
प्यास बुझेगी
आँखों में ज़िन्दगी उतरेगी ....

एक बार
बस एक बार
खुद को रखो वहाँ
दिल से सोचो
दिमाग से काम लो ....
खुद को खुद की ताकत दो
क्योंकि मसीहा हमारे ही भीतर है
वह जब भी आएगा
अपने भीतर से ही आएगा
तो ....... इंतज़ार कैसा ?

01 जून, 2012

माँ और बच्चे



वह माँ की भूमिका पूरी कर चुकी
पूरे हो चुके उसके दायित्व
अब वह सामर्थ्यहीन माँ है
कार्य उर्जा से विहीन !
पर आशीर्वचनों के घटक भरे हुए हैं
और टिका है मोह बच्चों से
बच्चों के बच्चों से !!
पर इस मोह में उसकी आँखें
दे रही हैं जवाब
बातों को न सुन पाने की बेचैनी
किंचित क्रोध में बदलती है
न कुछ कर पाने की विवशता
ज़माने की कहानियों में उतरती है ....
............
मुझे पता है मौत मांगते हुए
वह मौत से बेइन्तहां सहमी रहती है
वह नहीं चाहती कि वह अपने चेहरों से दूर हो
नहीं चाहती कि वे अपने जब उसे आवाज़ दें
तो वह ना हो ....
वह ढूंढती है आश्वासन कि वह ठीक हो जाएगी
पहले की तरह चलने लगेगी
और ठीक से देखने लगेगी ....
.....
कितनी विवशता है !!!
अब तो बच्चे थकने लगे हैं
माँ की ऊँगली थामे सोचते हैं
यदि हमें कुछ हो गया तो माँ का क्या होगा !
दहशत में एक तरफ माँ
और दूसरी तरफ अपने बच्चे
उनकी क्षमताएं अधिक कम हो गयी हैं ...
माँ की कांपती उँगलियों के बीच
वे असहाय हो गए हैं
एक अव्यक्त भय में जीने लगे हैं
और खुद में सिकुड़ते जा रहे हैं यह सोचकर
कि -
माँ ने जो दिया
क्या उसका एक हिस्सा भी हम दे पाएंगे !
......
खामोश वक़्त में माँ सोचती है -
मैं बोझ हो गई
बच्चे सोचते हैं
कैसे माँ के लिए माँ बन जाएँ ....
पर ख़ामोशी आपस में नहीं मिलती
तो अनकहे अनसुलझे भाव
दोनों की आँखों से बेबस टपकते रहते हैं ........

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...