25 सितंबर, 2011

देवदार



देवदार कहूँ तुम्हें
तो अतिशयोक्ति नहीं होगी
बड़ी से बड़ी आँधियाँ भी
तुम्हारे व्यक्तित्व को धूमिल नहीं कर पातीं ...

पर तुम्हारे सामर्थ्य से परे
तुम्हारे खड़े होने के दर्द को
मैंने अपने पैरों में महसूस किया है
तुम्हारे उन्नत मस्तक के आगे नत
सूर्य के तेज के आगे
तुम्हारी अविचल छवि की गरिमा से अभिभूत
मैंने जीवन को जीवन बनाया है
तुम्हारी हर शाखाओं से प्रेरणा ली है ...

' देवदार बनो ' - यूँ ही नहीं कहते सब
बनना वही होता है
वही चाहिए
जो आसान नहीं होता
सरल सीधे रास्ते
व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर पाते
आँधियों से गुजरकर ही अडिग रहना आता है
विषम परिस्थितियाँ ही अनुकूल होना सिखाती हैं
.............
देवदार को खुद में समाहित कर
देवदार में खुद समाहित होकर
तुमने ऋषि मुनियों के तप का अर्थ बताया
तुम्हारी दृष्टि में तपस्वियों सा तेज
और 'एकला चलो' सा भाव
अनुकरणीय हैं ...
तुम्हारे पैरों के निशां
बहुत अहमियत रखते हैं उनके लिए
जो देवदार बनना चाहते हैं
और उनके लिए भी
जो कडवी ज़िन्दगी , कड़वे बोल को
अपनी पूर्णता मान लेते हैं !!!

22 सितंबर, 2011

शिवलिंग



समंदर के मध्य
दिशाओं के सार तत्वों से
बनाया है शिवलिंग
प्रत्येक लहरों में शिव को घोला है
ताकि कोई किनारा सुनामी न लाए ....

रेगिस्तान के मध्य
रेत कणों से बनाया है शिवलिंग
कोई प्यासा न रहे
एक छोटे से प्रयास में
छुपी गंगा मिल जाए ....

मन के मध्य
आती जाती साँसों से
बनाया है शिवलिंग
....... और हो गई हूँ समाधिस्थ
अब मेरी साँसों में गुंजायमान है
' ॐ नमः शिवाय '

21 सितंबर, 2011

खुदा साथ चलने लगा



अपने चारों तरफ
जाने अनजाने
अनगिनत पगडंडियाँ बना
मैं प्रश्नों की भूलभुलैया से गुजरती रही ...
खून रिसने का खौफ नहीं हुआ
ना ही थकी चक्कर लगाते लगाते
चेहरे की रौनक ख़त्म हो गई
पर हौसलों की आग सुलगती रही ...
... धैर्य की एक हद होती है - सुना था
तो हदों से आगे
मैंने पगडंडियों से दोस्ती कर ली
क्योंकि हार मानना मेरी आदत नहीं !
दोस्ती में बड़ी कशिश होती है
पगडंडिया मंजिल तक पहुँचाने लगीं
....
देखते देखते कई कदम अनुसरण करने लगे
और पगडंडियाँ ठोस रास्तों में तब्दील होती गईं ...
..........
कहते हैं - चाह लो तो खुदा मिलता है
यहाँ तो खुदा साथ चलने लगा

19 सितंबर, 2011

रात की झिड़कियां



जब जब मैं हठी की तरह सोती नहीं
करवटें बदलती हूँ
यादों की सांकलें खटखटाती हूँ -
चिड़िया घोंसले से झांकती है
चाँद खिड़की से लगकर निहारता है
हवाओं की साँसें थम जाती हैं
माथे पर बल देकर रात कहती है
'सांकलों पर रहम करो
यादों पर अपनी पकड़ ढीली करो
पीछे कुछ भी नहीं ....
दिल पर जोर न पड़े
आँखों के नीचे स्याह धब्बे न पड़े
इसीलिए न मैं आती हूँ
करवटों से कुछ नहीं होगा
उलजलूल के सिवा कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा
सो जाओ ..... '
और इस प्यार भरी झिड़की के सम्मान में
रात के तीसरे पहर मैं सो जाती हूँ
चिड़िया एक अंगड़ाई ले दुबक जाती है
कहती है - आज देर से उठूंगी
चाँद चलने की तैयारी करता है
हवाएँ साँसें लेने लगती हैं
मुझे छूकर थपकियाँ देती हैं
रात अलसाई अपने चादर समेटने लगती है
........ क्या करूँ , होता है ऐसा कई बार ...
सब कहते हैं - इस उम्र में ऐसा होता है
पर मुझे तो सब यादों का तकाजा ही लगता है
तभी तो -
नींद की दवा भी हार हार जाती है
रात की झिड़कियां और हवाओं की थपकियाँ ही
हठ की दीवारें गिरा
पलकें बन्द कर जाती हैं

15 सितंबर, 2011

गांठ नहीं खुलती ...




गुत्थियां सुलझती ही नहीं
इतनी गांठें हैं , इतनी कसी
कि खोलते खोलते उंगलियाँ दुखने लगी हैं
कहीं कहीं से छिल भी गई हैं ...
....................
शुरू से मुझे इन गुत्थियों से डर लगता रहा है
शायद इसीलिए गुत्थियां मेरा पीछा करती हैं
ताकि एक दिन मेरा डर ख़त्म हो जाए
मैं अपनी उँगलियों का ख्याल करने लगूँ
उदासीन हो जाऊँ गांठों से
या फिर इस सत्य को स्वीकार कर लूँ
कि कभी भी कोई गांठ नहीं खुलती ...

12 सितंबर, 2011

नई कोपलों के निशां फिर कल को दुहराएंगे



कल सारी रात
दर्द से निर्विकार ...
(जाने किसका दर्द था) ! जागती रही
दर्द था या बेचैनी - पता नहीं ...
... जो भी हो -
उस दर्द को चकमा देकर
मैंने कुछ खरीदारी की !
.....
सपनों के बंजर खेत ख़रीदे ...
(बंजर थे तो कीमत कम लगी )
सौदा मेरे पास संचित रकम के अनुसार हुआ !
प्यार के ऐतिहासिक बीज भी
सस्ती कीमत में मिले ...
सुबह की किरणों के स्टॉल पर
सूरज ने मुझे ख़ास खाद दिया
बादलों ने अपनी दुकान में
पर्याप्त जल देने का एग्रीमेंट साईन किया
चिड़ियों ने भी अपने काउंटर से चहचहाकर कहा
' हम तो आयेंगे ही ....
हमारी लुप्त प्रजातियाँ भी आएँगी ...'
....
स्वेद कणों से भरा चेहरा लिए
मैंने सपनों की बंजर ज़मीन को
मुलायम करना शुरू किया .....
तो मेरे साथ चलते अनजाने हमसफ़र ने कहा
'और मैं तो हूँ ही '
सुनते ही
विश्वास से भरी हवाएँ चलने लगीं
अपनी जीत का यकीन लिए मैंने -
एडवर्ड - सिम्सन
अमृता- इमरोज़
हीर- राँझा
सोहणी - महिवाल जैसे
उत्कृष्ट बीज लगाए ...
कौन कहता है , निशां खो जाते हैं
....
नई कोपलों के निशां फिर कल को दुहराएंगे

10 सितंबर, 2011

सिर्फ अपना !!!



हकीकत... अक्सर खौफज़दा मोड़ से गुजरती है
क्योंकि उस मोड़ पे सिर्फ हम नहीं होते
बिना हमारे चाहे
नाम अनाम कई लोग
शुभचिंतक की लिबास में
मोड़ का निर्माण करते हैं
खुद को बेहतर बताने के क्रम में
पूरी हकीकत स्तब्द्ध बना देते हैं ...

वजूद के चीथड़े उड़ जाते हैं
सवालों के पोस्टमार्टम से
घर शमशान सा लगता है
घड़ी की टिक टिक इतनी तीव्र हो जाती है
कि और कुछ सुनाई नहीं देता
जो वेदना के सहचर होते हैं
उनका साथ भी उबाऊ लगने लगता है
........
ऐसे में ख्याल आता है -
बेहतर था ख्वाब देखना
झूठ ही सही - दिल तो बहलता है
कभी हकीकत होंगे ये ख्वाब
यह झूठा वहम तो पलता है
शाम हो या रात
हर वक़्त गुनगुनाने लगती है
नींद में भी चेहरे पर मुस्कान थिरकती है
सुबह का सूरज अपना लगता है ...
सिर्फ अपना !!!

07 सितंबर, 2011

ज़िन्दगी से मुलाकात



कल मेरे अनमने मन की मुलाकात ज़िन्दगी से हुई
सुसज्जित पुष्प आवरण में
खुशबू से आच्छादित
अप्रतिम सौन्दर्य लिए ....
सौन्दर्य ने मन की दशा ही परिवर्तित कर दी
लगा - बसंत तो कहीं गया ही नहीं है !
मुस्कुराती ज़िन्दगी की चपल आँखों ने कहा ,
कुछ कहना है या पूछना है ....

मन ने ज़िन्दगी की आँखों में गोते लगाए
जितने ख्वाब चुन सकता था - चुने
बेशुमार रंगों से रंग लिए
और टिमटिमाती ज़िन्दगी को छू छूकर देखा
बुदबुदाया -' ज़िन्दगी तो माशा अल्लाह कमाल की है
इसे कौन नहीं जीना चाहेगा !'
कई सवाल कुलबुलाये ....
पर ये ज़िन्दगी तो कई खेल खेलती है
...... दर्द का सिलसिला , भय का सिलसिला
हार का सिलसिला .... चलता है तो रुकता ही नहीं
शिकायतों का पुलिंदा लिए हम रोते जाते हैं
और ज़िन्दगी कानों में रुई डाले अनजान बनी रहती है ....

मन आगे बढ़ा... ज़िन्दगी के काँधे पर हाथ रखा
.... ज़िन्दगी फिर मुस्कुराई ,
आँखों को उचकाकर कहा - 'कहो भी ... '
मन ने संयत भाव लिए कहा -
" ज़िन्दगी तुम्हारे सौन्दर्य में तो
कहीं कोई कमी नहीं ....
जीने के हर खुले मार्ग हैं तुमसे जुड़े
व्यवधान का पुट कहीं दिखता ही नहीं
फिर जब हम तुम्हें जीते हैं
तो मार्ग अवरुद्ध कैसे हो जाते हैं !"

ज़िन्दगी ने मन का सर सहलाया
संजीवनी सी लहरें लहरायीं
मन देवदार की तरह हो ज़िन्दगी को सुनने लगा -
" मैं ज़िन्दगी हूँ
जन्म से मृत्यु के मध्य
मैं सिर्फ जीवन देती हूँ
तहस नहस करना मेरा काम नहीं
छल के बीज भी मैं नहीं बोती
विनाश से मेरा कोई नाता नहीं
मैं तो बस देती आई हूँ ...
अर्थ का अनर्थ
यह तो इंसानी दाव पेंच हैं ...
'इसी जीवन में सब होता है '
ऐसा कहकर इन्सान अपनी चालें चलता है
अपने स्वार्थ साधता है
सबकुछ तोड़ मरोड़कर
बढ़ाकर घटाकर
मायूसी से कहता है
'ज़िन्दगी के रंग ही अजीब हैं .... '
सच तो ये है
कि मेरे पास कुछ भी बेमानी नहीं
हर रंग की अपनी खासियत है
अगर इंसानी मिलावट ना हो ...
मैं तो सिर्फ राहें निर्मित करती हूँ
सेंध लगाना इंसानी फितरत है
किसी और को कटघरे में डालना भी
उसकी सधी चाल है .. .."

अनमना मन अनमना नहीं रहा
उसने बड़े प्यार से ज़िन्दगी के हाथ चूमे
लम्बी सी सांस ली
और मेरे पास आ गया
कहीं कोई सवाल शेष नहीं रहा ....

03 सितंबर, 2011

मैं नन्हा गाँधी



मैं नन्हा गाँधी
इस बार कोई सत्याग्रह नहीं करूँगा
अपनी पदयात्रा भी अकेले करूँगा
...... परायों से युद्ध जटिल होकर भी
आसान था
पर अपने घर में !!!
बालसुलभ हठ हर उम्र में एक सुख देता है
पर जब अपने षड़यंत्र करते हैं
एक दूजे को नीचा दिखाने का
हर संभव प्रयास करते हैं
तो भूख यूँ ही मर जाती है ...
फिर कैसा अनशन ?
और किससे क्या पाना !
.......
जो मद के गुमां में होते हैं
उनके लिए तो प्रेम ही वर्जित है ...
न घर न देश ---- सिर्फ मैं '
तो इस 'मैं' का हश्र मैं देखना चाहता हूँ
अपने नन्हें क़दमों से वहाँ तक जाना चाहता हूँ
जहाँ 'मैं' स्तब्द्ध' होता है
दिशाएं मौन होती हैं
अपना साया भी पीछे रह जाता है
..... वहाँ उस सन्नाटे में अपनी हथेली बढ़ाना चाहता हूँ
इस लम्बी यात्रा को 'वसुधैव कुटुम्बकम' का विजयी मंत्र देना चाहता हूँ
....
मैं नन्हा गाँधी
पीछे आनेवाली आहटों पर ध्यान लगाए
आज से अपनी यात्रा शुरू करता हूँ
तुम्हारी नज़रें जहाँ जहाँ जाती हैं
वहाँ वहाँ से तुम्हारा आह्वान करता हूँ
.... याद रखना , मैं एक देश हूँ तुम्हारा
कोई पार्टी नहीं !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...