30 दिसंबर, 2011

वर्ष कहता है - मेरा नया आरम्भ तुम्हारा हो ...




विदा की बेला में
रुकने की बात कर
क्यूँ मेरे मन को कातर कर रहे हो
विदा का जश्न मनाते
तुम तो घड़ी की सुइयों में अटके हो
कब १२ बजे और नया साल आए ...

आँखें तो मेरी छलकने को हैं
कुछ पल के लिए मेरी सोचो ,
मैं एक वर्ष की अवधि लेकर आता हूँ
हर घड़ी साथ रहता हूँ
मेरे स्वागत में जो संकल्प तुम उठाते हो
उसे दूसरे दिन भूल जाते हो
.... कभी सोचा है
उस संकल्प को टूटता देख
मुझे कैसा लगता है !....
मैं कोई बच्चा नहीं
न ही तुम्हारा रिश्तेदार हूँ
मैं ईश्वर द्वारा दिया गया मौका हूँ
वह पन्ना -
जिसे तुम नया अर्थ दे सको ...!!!
लेकिन तुम - !
तुम तो निर्माण से अधिक विध्वंस करते हो
और परिणाम के चक्रव्यूह में जब खुद आ जाते हो
तो साल को खराब कहते हो
कितनी चालाकी से तुम खुद को बेदाग़ रखते हो !...
वर्ष तो ३६५ दिन की मोहलत देता है
कई विशेष दिन की खुशियाँ
पर तुम ...
इतनी बेचारगी है तुम्हारे पास
कि कुछ भी स्थाई नहीं ...
हो भी नहीं सकता
क्योंकि तुम्हारा स्वभाव ही डगमगाता रहता है
.... संभव हो तो स्थायित्व का संकल्प लो
फिर मेरे हर पल में तुम होगे
और होगी मेरी ख़ुशी
तुम्हारी जीत में
दुआ है-
मेरा नया आरम्भ तुम्हारा हो ...

28 दिसंबर, 2011

सोच के देखो






मैंने तुमसे कहा -
आकाश पाने के ख्वाब देखो
सूरज तो मिल ही जायेगा ...'
जब कभी किरणें विभक्त हुईं
मैंने उनको हथेली में भरकर
सूरज बना दिया ...
मिलने की अपनी सार्थकता होती है
पर क्या नहीं मिला
क्यूँ नहीं मिला के हिसाब का फार्मूला
बहुत जटिल होता है
तुम उसे सुलझाने में
न उसे सुलझा सकते
न पाने की ख़ुशी जी सकते हो !
ऐसे में -
सूरज भी मायूस पिघलने लगता है ...

आकाश परिपूर्ण है - क्यूँ ?
सूरज , चाँद , सितारे , बादल
ये सब मिलकर उसे पूर्णता देते हैं
वरना आकाश के विस्तार का कोई औचित्य नहीं !
खोना -पाना अपने हाथ में नहीं होता
पर खुद को टूटकर भी जोड़े रखना
अपने हाथ में होता है
...
सीखने के लिए प्रकृति का विस्तार है
सृष्टिकर्ता का चमत्कार है
सूरज ...
ग्रहण के पंजे में भी आता है
चाँद सूक्ष्म से पूर्ण होता है
ग्रहण उसे भी लगता है
सितारे टूटते हैं
फिर भी विश पूरा करते हैं
पेड़ को काट दो
फिर भी हरे पत्ते
उसके अस्तित्व को बताते हैं ....
.....
हमारा अस्तित्व है
समय की पहचान
ख़्वाबों की वो धरती
जहाँ आकाश मुट्ठी में होता है - सूरज नए विश्वास का तेज लिए
पास बिल्कुल पास होता है ...
सोच के देखो
एक मासूम मुस्कान तुम्हारे चेहरे पे होगी
क्योंकि सत्य यही है
बस यही है !

24 दिसंबर, 2011

शिखर सम्मान




जब हम शरुआत करते हैं कुछ कहने की
तो शब्दों को नापतौल कर उठाते हैं
किसी भी नापतौल में शुद्धता नहीं होती
यानि डंडी मार ही लेते हैं हम
भावनाओं में फेर बदल करके
हम कलम को कमज़ोर बना देते हैं !
पर जिस दिन हम सत्य पर आते हैं
हमारा साहस, हमारे हौसले
नए पदचिन्हों का निर्माण करते हैं ...
पलायनवादी कहते हैं - 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियम'
हम भी मानते हैं
अप्रिय सत्य कहने में कटु होता है
पर जब तक यह कटु घटित होता रहता है
सब खामोश रहते हैं
तो जब उस कटुता को कहने से लोग रोकें
तो हमें खामोश रहना चाहिए
और कहने की दिशा से
भटकना नहीं चाहिए ....
याद रखो -
निर्माण सशक्त हो
सत्य अटल हो
तो निर्माण की आलोचना नहीं होती
बल्कि निर्माता की पुख्ता पहचान होती है
शिखर उसकी प्रतीक्षा में
अपना सर झुकाता है
फिर जहाँ शिखर सम्मान हो
वहाँ किसी और सम्मान की क्या ज़रूरत ! ...

21 दिसंबर, 2011

समंदर सा इमरोज़ , सीप सा इमरोज़ - अमृता को मोती बनना ही था !



अमृता -
एक टीनएजर की आँखों में उतरी
तो उतरती ही चली गई ...
वक़्त की नाजुकता
रक्त के उबाल को
किशोर ने समय दिया
फिर क्या था
समय अमृता को ले आया ....

अमृता के पास शब्द थे
इमरोज़ के पास सुकून का जादू
जिससे मिला उसे दिया
निःसंदेह अमृता ख़ास थी
तो उसके घर का कोना कोना
महक उठा इस सुकून से ...

समाज ने उम्र के अंतराल को इन्गित किया
खुद अमृता ने भी
पर इमरोज़ ने हर तरफ रंग भर दिए
दीवारों पर
अमृता की हथेलियों पर
आँखों में
चेहरे पर
रिश्ते दर रिश्तों पर
यूँ कहें इश्क बनाम इमरोज़
अमृता के घर में जज़्ब हो गया ...

घर हौज़ ख़ास नहीं
ग्रेटर कैलाश नहीं
न दिल्ली, न मुंबई - कोई शहर नहीं
घर -
बस अमृता का वह पोस्टर
जिससे इमरोज़ की चाहत जुड़ गई
एक कमरे का वह मकान
जहाँ अमृता जीने को आती रही
एक स्कूटर
जिसकी रफ़्तार में
अमृता इमरोज़ हो गई
और अतीत -
खुरचनों की तरह जमीन पर गिर गया !
बड़ी बात थी पर सहज था
क्योंकि अतीत ने सिर्फ अमृता को देखा था
इमरोज़ ने अमृता की आत्मा को
....
यहाँ तो साथ चलते रिश्तों से नाम गुम हो जाते हैं
पर इमरोज़ हर सुबह
सूरज की पहली किरण से लेकर
रात सोने तक
एक ही नाम कहता है - अमृता !
इतनी शिद्दत से चाहा इमरोज़ ने
कि शिद्दत भी खुद पे इतराती है
समंदर सा इमरोज़
सीप सा इमरोज़ - अमृता को मोती बनना ही था !

18 दिसंबर, 2011

कैसे तय होगा



जो मैं कहूँ वो तुम कहो - ज़रूरी नहीं
फिर जो तुम कहते हो वही मैं भी कहूँ - क्यूँ ज़रूरी होता है ?
मैं तो मानती हूँ कि विचारों की स्वतंत्रता ज़रूरी है
अपना अपना स्पेस ज़रूरी है
तुम भी मानते हो ...
तभी मेरी बात से अलग होकर
तुम उसे सहज मानते हो
पर मेरे अलग विचार से
तुम बिफर उठते हो !
यह तो गलत है न ?
विचारों में उम्र , स्त्री पुरुष ,
जाति धर्म का पैमाना नहीं होता
अनुभव मायने रखते हैं
लेकिन अनुभव भी उम्र के मोहताज नहीं होते !
चलो उदाहरण से समझाती हूँ -

बचपन चिंताओं से मुक्त होता है
अतीत, भविष्य के भय से कोसों दूर ...
लेकिन क्या यह अक्षरशः सत्य है ?
नहीं ,
जिन घरों में शांति नहीं होती
जिन घरों में रोटी नहीं होती
जिन घरों में धमकियां होती हैं
.... वे किसी दिन की शांति में भी डरे ही होते हैं
एक दिन भरपेट खाकर भी वे भविष्य से भयभीत रहते हैं
एक दिन कोई सर पे हाथ रखता है
तो वे बिना धमकी आशंकित होते हैं
शांति में धमाकों की आवाज़ सुनते हैं
....... तो कैसे तय होगा कि तुमने जो कहा वही सही है
मेरी या उन बच्चों की सोच गलत ?

त्योरियों पर नियंत्रण रखो
और सही जवाब दो ...

14 दिसंबर, 2011

परिस्थितियाँ और बहादुर ...



उन्होंने बड़े प्यार से कहा -
'तुम बहुत बहादुर हो "....
.... चेहरे पे मुस्कान उतर आई
वर्षों की परिस्थितियों ने ली अंगड़ाई
और मैंने खुद का मुआयना किया ...

मैं एक डरपोक लड़की
माँ की चूड़ियों में ऊँगली फंसाकर सोती थी
ताकि जब भूत मुझे पकड़ने आए
तो माँ की चूड़ियों में फंसी ऊँगली
माँ को जगा जाए
और मैं बच जाऊँ ....
बेवकूफ सोच ..., पर डर ही इतना प्रबल था !

सब दिन होत न एक समान '
मेरे भी नहीं रहे .....
भूत तो नहीं मिला
हाँ भूत की शक्ल में आदमी मिले
बोलते तो लगता कह रहे हैं -
'कच कच कच कच कच्चे खाँव '
माँ की चूड़ियाँ बहुत दूर थीं
तो कहा -
'जाको राखे साइयां मार सके न कोय '
पर कहते हुए
सरकती रात में दिल धड़कता रहा
कच्चे खाँव के खा जाने का भय
साथ साथ चलता रहा ...

कई दोराहे , चौराहे मिले
पार कर गई ...
मैं मजबूत होती गई या खाली
इससे परे ज़िन्दगी जीती गई !
जब कभी आँखें छलछलायीं
सुना - "अरे तुम तो बहुत बहादुर हो ..."
..... कहनेवालों की नियत गलत नहीं थी
हाँ , सुनकर मैंने खुद को टटोला
क्या यह सच है
कि मैं बहुत बहादुर हूँ
या चलती साँसों के मध्य परिस्थितियों को
बाएं दायें चलकर जीती गई ...
पता नहीं - सच क्या है !
जो भी हो -
कभी खुद पे इतराई
कभी आईने में खुद से पूछा
' तुम बहादुर हो ?'
......................... सिलसिला जारी है .......................

06 दिसंबर, 2011

अगर मगर



" जब वी मेट " में
जब नायिका कहती है
'फोटो फाड़ो और फ्लश करो'
तो दर्शक मुस्कुराते हैं ...

फिल्मों में जो होता है
वह रियल लाइफ में कहीं कहीं होता है
यहाँ तो लोग खुद से डरते हैं
सोचते हैं
इससे मेरे व्यक्तित्व पर प्रश्न उठ खड़ा होगा
ये...वो... जाने कितने मंथन !
मंथन तो इस बात का होना चाहिए न
कि किसी ने अगर मुझे
चाय में पड़ी मक्खी की तरह फ़ेंक दिया
तो क्या इसे सहज घटना रहने दूँ ...

सही फैसला लेने से
व्यक्तित्व कभी धूमिल नहीं होता
बल्कि वह उदाहरण बनता है !
हम खुद को
उदाहरण बनाने की बजाय
निरीह बना लेते हैं
और मानसिक अपाहिजता लिए
हर आगत को अपाहिज कर देते हैं !
विवशता तभी तक होती है
जब तक हम उसके नीचे दबे रहते हैं
सच तो यही है
कि कोई किसी के लिए
कहीं नहीं ठहरता
यहाँ तक कि वक़्त भी नहीं
....फिर क्या अगर मगर ???

04 दिसंबर, 2011

प्यार हो तो तूफानों का भी खौफ़ नहीं होता



कहते हैं वे ...
'कहा तो होता '
'बताना था '...
'अरे उसकी बात हटाओ
सब सेल्फिश हैं '
हर बार एक भरोसे ने सर उठाया
'अब चिंता की बात नहीं
अब मेरे बच्चे नहीं घबराएंगे
कॉलेज में चले गए तो क्या
अभी .... घबराहट तो होती है न !'

बात कहीं पैसे पर , कहीं परेशानी पर
कहीं समय पर आकर रुक जाती है ...
और अनुभवी स्वर -
भगवान् की मर्ज़ी !'
हाँ भगवान् की मर्जी
और मन को समझाती हूँ
' बच्चे समझदार हो गए
समय के अनुसार वे सब संभाल लेते हैं ...'
और सब भी यही कह जाते हैं -
'एक तरह से यह अच्छा ही हुआ
बच्चे अपनी ज़िम्मेदारी समझने लगे हैं ...'

कहाँ, कब, बचपन घबराकर इधर उधर देखता रहा
इस पर चिंतन अपेक्षित ही नहीं रहा ...
जोर से बोल लो - बात ख़त्म !
पैसा दे दो - ज़िम्मेदारी ख़त्म !
सब जानते हैं -
पैसों का इंतजाम होना मुश्किल है
बहुत मुश्किल नहीं
खासकर उनके लिए
जो ज़िन्दगी से समझौता करते आए हैं
और ठोकरें खाकर भी
प्यार को महत्वपूर्ण मानते हैं .....
और मंत्र की तरह अनगिनत जाप करते हैं -
"प्यार हो तो तूफानों का भी खौफ़ नहीं होता "

02 दिसंबर, 2011

कुछ भी नहीं भूली ...




कुछ भी नहीं भूली ...

नहीं भूली उँगलियों पर कोयले से पड़ी दरारें
क्योंकि कभी उन दरारों से वाकिफ नहीं हुई थी ...
नहीं भूली गोद और आग की दूरी
जरा सी लापरवाही
मेरी अज्ञानता का द्योतक बनती
और मेरी माँ के दिए संस्कार और तरीके ....
कितने सारे प्रश्नों के घेरे में !
.....
नहीं भूली -
एक साथ तवे पर आठ दस रोटियाँ रखना
और एक बार में सबकी प्लेट में गर्म रोटी रखना ...
अब हँसी आती है
क्योंकि पी सी सरकार बनकर भी
कुछ हासिल नहीं हुआ !!
....
नहीं भूली कि कितनी हसरत थी परी बनने की
तभी तो खुद में खुद चाभी भरके
पुरवईया सी तेज हो जाती थी -
घड़ी की सूई १० तक पहुँचे
उससे पहले - घर सुव्यवस्थित
बच्चे तैयार
खाना तैयार
और माथे पर पसीने की एक बूंद भी नहीं ...
फिर भी प्रमाणपत्र मिला ' बेकार ' का !
....
बड़े नाजों पली थी
पर इस पालन पोषण में
संस्कारों की घुट्टी थी
तो जो सामर्थ्य से परे था
वो भी किया .... और करते हुए नसीहतों के पाठ भी पढ़ती रही !
....
अब सोचती हूँ -
गलती सरासर अपनी थी ...
बचपन में 'ब्यूटी एंड द बीस्ट' क्या पढ़ा
खुद को ब्यूटी मान लिया
और सोचा जो कभी बीस्ट मिला हमें
तो राजकुमार बना देंगे सेवा से !
कहानियों में जीने की बुरी आदत ने
बीस्ट के इतने नज़ारे दिखाए
कि मानना पड़ा - 'सब झूठ है '
....
अब न बीस्ट से डर लगता है
न परियों से ख्याल आते हैं
संस्कारों की पिछली घुट्टी का असर भी नहीं रहा
.... अब तो खुद में ठहाके लगाते हैं
कि हम भी क्या क्या करते थे !
कुछ भी नहीं भूली हूँ ...

25 नवंबर, 2011

सिर्फ पागल



हादसे अपने अपने होते हैं

अपने नहीं होते
तो दूसरे के दर्द में कोई रोता ही नहीं !

ये सच है
कि सबको अपनी बात पे ही रोना आता है
पर अपनी बात - सामने की पुनरावृति से जुड़ी होती है !

... जिसने हादसों की आवाज़ न सुनी हो
वह किसी के हादसे को सुनेगा ही क्यूँ
... उसे तो महज वह शोर लगेगा
रोना तो दूर की बात होगी
उसके चेहरे पर एक खीझ की रेखा होगी !

पर हम भी कहाँ साथ रोनेवाले का हाथ थामते हैं
जिनके चेहरे पर खीझ होती है
उन्हें समझाने में लगे रहते हैं ...
असफल होकर गाते हैं -
'कौन रोता है किसी और की खातिर ...'
जैसे सारी दुनिया दुश्मन हो !

दोस्त तो हम अक्सर खो देते हैं
क्योंकि हमें दोस्ती से अधिक
अगले हादसे का इंतज़ार होता है
..... हादसों को नियति बनाकर चलना
हमें सहज लगता है
और जब यह सहज लगता है
तो हम सिर्फ पागल दिखाई देते हैं
....... सिर्फ पागल !

18 नवंबर, 2011

प्यार मर जाता है



जाने कैसे ...
किस आधार पर
सब कहते हैं - ' प्यार कभी नहीं मरता '
... मरता है प्यार
यदि वह इकतरफा हो
मरता है प्यार
यदि उपेक्षा के दंश गहरे हों !

अहम् और अस्तित्व में फर्क होता है ...
प्यार तो यूँ भी सरस्वती की तरह
विलीन होना जानता है
पर उसके अस्तित्व को मिटाना ?
क्या सरस्वती के बगैर त्रिवेणी का अस्तित्व होगा ?
प्यार पहचान देता है
ना देखकर भी उसे देखा जा सकता है
पर देखकर जब कोई ना पहचाने
फिर प्यार ..... मानो न मानो
मर जाता है !

हाँ मृत्यु से पहले
प्यार मोह की बैसाखी लेता है
खींचता है अपना सर्वांग
लेकिन ...
जब वह खुद को खींचने में असमर्थ होता है
और उसके लड़खड़ाते अस्तित्व के आगे
किसी की मजबूत हथेली नहीं होती
तो - प्यार मौन हो जाता है !

अवरुद्ध साँसों के बीच
अतीत की लकड़ियाँ इकट्ठी करता है
भूले से भी लकड़ियों में गीलापन न रह जाए
प्राप्त उपेक्षा के घी से उसे सराबोर करता है
फिर आँखों की माचिस से
एक बूंद की तीली ले
उसे प्रोज्ज्वलित करता है
उम्मीदों का तर्पण कर
खुद को खुद ही मुक्ति देता है ....

अमरत्व उस प्यार में है
जहाँ दोनों तरफ अमृत हो
एक तरफ अमृत और एक तरफ विष हो ....
तो ,
.... अब सोचकर देखो ,
प्यार मर जाता है न ?

16 नवंबर, 2011

ओस से ख्याल



ओस की बूंदों को ऊँगली पे उठा
पत्तों पर लिखे हैं मैंने ख्याल
सिर्फ तेरे नाम ...
इन बूंदों की लकीरों को
तुम्हीं पढ़ सकते हो
तो सुकून है -
कोई अफसाना नहीं बनेगा .

.... प्यार में अफसानों का भय नहीं
पर कोई उन पत्तों को चीर दे
यह गवारा नहीं ...

इतिहास गवाह है मेरी ख़ामोशी का
होगा गवाह मेरी ख़ामोशी का
पर ....
अब तुम नहीं कह सकोगे
कि
तुम्हारी ख़ामोशी के आगे मैं क्या कहता !!!

क्योंकि मैंने लिख दिया है पत्तों पर
रख दिया है पत्तों पर
छोटे छोटे ओस से ख्याल !

14 नवंबर, 2011

पतिव्रता (?) नारियाँ !



दो तरह की पतिव्रताएं देखने को मिलती हैं ....
एक - जो पति का जीना हराम रखती हैं
जीभर के गालियों से नवाजती हैं
हिकारत से देखते हुए
तीज और करवा चौथ करती हैं
चेहरा कहता है भरी महफ़िल में कि" मान मेरा एहसान .
जो मैं ये ना करूँ तो लम्बी आयु को तरस जाओगे ..."
और इस कमरे से उस कमरे गाती चलती हैं -
" भला है बुरा हैजैसा भी है , मेरा पति मेरा देवता है "
और इस तर्ज के साथ कई पति गुल !
...........................................................
दूसरी - जो हर वक़्त नज़ाकत में कुछ नहीं करती ...
एक ग्लास पानी तक नहीं देती
पर लोगों के बीच कहती हैं ,
" चलती हूँ , इनके आने का वक़्त हो चला है
- दिन भर के थके होते हैं
तो उनकी पसंद का कुछ बनाकर
चाय के संग देना अच्छा लगता है ..."
और लम्बे डग भरती ये चल देती हैं
घर में पति के आते ये एक थकी हारी मुस्कान देती हैं
नज़ाकत की बेल का हाथ थाम पति पूछता है -
" अरे , क्या हुआ ? "
पत्नी एहसान जताती कहती है -
" कुछ नहीं , पूरे दिन सर भारी भारी लगता रहा है ...
खैर छोड़ो , चाय बनाती हूँ ..."
बेचारा पति ! सारी थकान भूल कहता है -
' नहीं मेरी जान , मैं बनाता हूँ " .....
चाय पीकर फिर बाहर चलने का प्रोग्राम बनता है
लिपस्टिक और लम्बी सी मुस्कान लिए
हिम्मत दिखाती ,प्यार जताती पत्नी चल देती है
और पति कुर्बान !
.......... असली पतिव्रता को कुछ भी दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ती , .... वे तो बस होती हैं !

12 नवंबर, 2011

जो चाहोगे वही मिलेगा !



मेरे पास है एक मासूम बच्चे सा मन
अनुभवों का आकाश
हौसलों से भरा विराट जादुई पंख
जिसे कितना भी काटो
वह खुद को पूर्ववत कर लेता है
मेरे पास हैं आम साधारण मंत्र
जो कभी भी
कहीं भी
तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं
एकलव्य की आस्था
कर्ण की सहनशीलता, दानवीरता
अर्जुन की निष्ठा
प्रह्लाद सी निडरता
छलरहित दिमाग
गलत विरोधी कदम
सच कहने का अदम्य साहस ......
इस नज़रिए को ज़िन्दगी बना लो
तो सही मायनों में जी सकोगे
आँधियाँ कितनी भी आएँ - जूझ सकोगे ...
....
मैं ये नहीं कहती
कि आँखों से आंसू नहीं बहेंगे
यकीनन बहेंगे
.... वो ना बहे तो अन्दर की बेतरतीबी
सुलझेगी कैसे !

मैं ये भी नहीं कहती
कि रातों को जागोगे नहीं
यकीनन जागोगे
करवटें बदलोगे
.... ये न हुआ तो ठोस निर्णय
ले कैसे सकोगे ?

मेरे पास अनुभवों का एक खजाना है
जो कभी खाली नहीं होगा
तुम बस चाहना
....... जो चाहोगे वही मिलेगा !

10 नवंबर, 2011

जिसका डर था !



बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण ने
हमेशा मेरा आह्वान किया
मेरे विरोध से बेखबर
मुझे वह स्थल दिखाया
जहाँ ज्ञान मिला ...
एक नहीं दो नहीं ...कई बार
बुद्ध को मैंने प्रश्नों के भंवर में रखा
पर बुद्ध !
शांत स्मित लिए अनंत आकाश की तरह
भंवर से परे रहे ...
मैंने किंचित कटुता लिए भाव संग पूछा था ,
'क्या यशोधरा के मान का तुम्हें ख्याल नहीं आया ?'
आँखों में उद्दीप्त तेज भरकर बुद्ध ने कहा -
' मुझसे अधिक मान किसी ने रखा ही नहीं ...
एक एक पल में समाहित हमारा राहुल
यशोधरा की सांस बना , मकसद बना !
दुनिया क्या जानेगी , क्या पूछेगी
जो बात मेरे और यशोधरा के बीच थी !

जिस वक़्त मैं मोह की परिधि से निकला
उस वक़्त सारी दुनिया सो रही थी
पर यशोधरा जाग रही थी ....
मेरे ज्ञान मार्ग के आगे
वह विश्वास का एक दीया थी !
पति पत्नी की अवधि वहीँ तक थी
उससे आगे हम सहयात्री थे
मैं प्रत्यक्ष था , वह परोक्ष ....
बस यही एक सत्य था '
......
सोते जागते कोई अज्ञात स्वर मुझे बुलाता है
मोह से परे एक लम्बी सूक्ष्म पगडंडी दिखाता है
चौंकती हूँ ,
रोम रोम से एक ही गूँज अनुगूँज ...
' बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि ....'
और मैं
आखिर वही हुआ
जिसका डर था !!!.....
यशोधरा का रूप लिए
निर्वाण यज्ञ को उद्धत होती हूँ !

09 नवंबर, 2011

किताबों वाला प्यार



किताबों के सफ़र में मिले थे
लैला मजनू, शीरी फरहाद , हीर रांझा , सोहणी महिवाल
एडवर्ड सिम्पसन , अमृता इमरोज़ ....
.......
इंतज़ार , ख्याल, मनुहार ....
सब किताबी
जीवन में उतर गए थे !
सपने जो जागती आँखों में उतरते थे
माशाल्लाह - यथार्थ से परे थे !
आँखों को तिरछे घुमा
आईने में सलीम को बैठा
पूछती थी -
'हुजुर एक न एक दिन ये बात आएगी
कि तख्तो ताज भली है कि एक कनीज भली ?'
पानी में कंकड़ डालने से ज्यों पानी हिलकर स्थिर हो
उसी तरह आईने में सलीम को हटा एडवर्ड की छवि कहती
'मैं तख्तो ताज को ठुकरा के तुझको ले लूँगा ...'
और फिर आँखें
प्यार के समंदर से लबालब हो उठतीं
होठों पर एक ही पंक्ति होती -
'इंतज़ार और अभी और अभी और अभी ...'
....
जब जरा सा लगा कि प्यार है
झटके से हाथ झटक कटु शब्द गूंजे -
' ज़िन्दगी कोई सिनेमा नहीं
न किताब के दिलचस्प पन्ने हैं
रोटी दाल के भाव के आगे
ये सब चोचले हैं '.......
टप्प से आंसू की एक बूंद गिरी
' न हन्यते ' का मिर्चा मेरे ख्यालों से जाए तो कैसे !
दिल ने बहस किया दिमाग से -
' अगर इन ख्यालों में सच्चाई नहीं
तो ये सारे पात्र आए कहाँ से ? '
........
किसी भी किताब का कोई एक पन्ना मिल जाए
-की धुन में
रास्ते अकेले रहे !
........
पन्नों से निकलकर मिली थी इमरोज़ से
- ओह !
ऐसा ही तो चाहा था मैंने
मेरी तस्वीरों से
मेरी हँसी से
मेरे एहसासों से
कोई अपने कमरे की दीवारों को
चाहतों के रंग से भर दे ...!
बिना संगीत के मैंने वहाँ मौन सरगम सुने
पायल की रुनझुन सुनी
खाली कप से एहसासों का उठता धुंआ देखा
अमृता ना होकर भी
हर सू दिखी
अतीत का वर्तमान ...
प्यार के किताबी पन्नों सा फडफडाता मिला
...
मैं फिर सोचने लगी ...
कहीं तो होगा कोई पन्ना प्यार का
जिसमें उसके साथ मेरा भी नाम होगा
दुनिया पढेगी
और कोई लड़की एक ख्वाब देखेगी
मेरी तरह -
किताबी प्यार का !!!

....

05 नवंबर, 2011

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है..



अजब है ये दुनिया !!! आप किसी को भी आदर्श नहीं बना सकते ... यकीनन मैं भी दुनिया में हूँ , पर एक बात स्पष्ट कर दूँ - जब आदर्श हो या प्रेम हो तो उसके गुण भी अपने, अवगुण भी अपने , अन्यथा आप हम ज़िन्दगी को प्याज के छिलकों की तरह इस्तेमाल करते रह जायेंगे . हम सब जानते हैं कि कोई भी परफेक्ट नहीं होता , पर यदि वह परफेक्ट किसी को मिल जाता है तो आप हम अपना सारा काम छोड़कर उस प्राप्य्कर्ता को यह सिद्ध करने में जुट जाते हैं कि वह पहले कैसे परफेक्ट नहीं था !
किसी से आपकी ना बनती हो तो बात समझ में आती है , पर जिनसे आपके कोई ताल्लुकात नहीं .... उनके अनजाने पन्नों को क्यूँ खोलना ! और यदि खोला तो मुहर कैसे मार दी बिना सोचे समझे ? थोड़ी अक्ल लगाईं होती , नज़रें घुमाई होती ... नहीं , 'कौआ कान ले गया ' सुनते दौड़ पड़े और फिर बड़ी शिद्दत से लिख दिया - ' हम बेखुदी में तुम्हें सोचते रहे ... कौआ कान ले गया !'
आप सोच रहे होंगे ये असली माज़रा क्या है .... मैं भी सोच रही हूँ कि मैं खामखाह इधर उधर क्यूँ कर रही हूँ !

एडवर्ड का नाम आपने भी सुना होगा , जिसने सिम्पसन के प्यार में इंग्लैण्ड का राज्य त्याग दिया ! बहुत छोटी थी , जब माँ ने यह कहानी सुनाई और तब से एक अनजाना चेहरा मेरे पूरे वजूद में चलता रहा . रोमांच होता रहा सोचकर , सिम्पसन ने मना किया लेकिन एडवर्ड ने सिम्पसन के आगे राज्य को तुच्छ बना दिया . ........................................ प्यार सही मायनों में यही है - आत्मा यहीं , परमात्मा यहीं , नैसर्गिक संगीत यहीं .
मेरी कलम में इतनी ताकत नहीं कि एडवर्ड और सिम्पसन को शब्दों में ढाल सके ! नाम लें या प्यार कहें - यह एक एहसास है सूर्योदय की तरह , चिड़ियों के घोंसले से झाँकने की तरह , मंद हवाओं की तरह , सघन मेघों की तरह , रिमझिम फुहारों की तरह, मिट्टी की सोंधी खुशबू की तरह , गोधूलि की तरह, सूर्यास्त , रात , समुद्र की लहरें , ओस , पपीहे की पुकार , शनैः शनैः फैलती ख़ामोशी में एक मीठी खिलखिलाहट , प्रतीक्षित आँखें , बोलती आँखें , तेज धड्कनें , मौन आमंत्रण , मौन स्वीकृति , ............ जिस उपमा में महसूस करें - प्यार है तो बस है .
फिर भी एक कोशिश की चाह ने कहा - कुछ भी कहो, पर कहो , क्योंकि तुम्हारे अन्दर एक एडवर्ड और सिम्पसन अंगड़ाई लेते रहे हैं और प्यार ही प्यार को कोई रंग दे सकता है सातों रंगों के मेल से ..... मुझे इस सच से इन्कार नहीं कि इस आठवें रंग ने ही मुझे चलाया है ... जब प्यार की बातें होती हैं वहाँ मेरा साया होता ही है .
लिखने को तत्पर हुई तो सोचा - कुछ और पढूं .... तो पढ़ा , एडवर्ड को प्यार करने की आदत थी , वे एक दिलफेंक इन्सान थे .... सिम्पसन से पहले वे शादीशुदा रईस महिला और दो बच्चों की मां फ्रिडा डडले वार्ड के प्रेम में पागल थे और उन्हें पाना चाहते थे !.... पढकर लगा कि जब सोच संकीर्ण हो तो वहाँ बातों का रूप कितना हास्यास्पद हो जाता है .
कम उम्र हो या अनुभवी उम्र ही सही - प्रेम और आकर्षण में फर्क होता है. आकर्षण में भी वही ख्याल उभरते हैं , जो प्रेम में उभरते हैं , पर आकर्षण में ठहराव नहीं होता , न आस्था , न निष्ठा ..... वह रेतकणों की तरह निर्धारित समय पर मुट्ठी से फिसल जाता है . एडवर्ड का राज्य त्याग यदि सिम्पसन के लिए तठस्थ रहा तो फ्रिड़ा डडले वार्ड के लिए क्यूँ नहीं हुआ ? - यह प्रश्न ही उत्तर है !
पूरी ज़िन्दगी सिम्पसन के साथ प्यार में निभानेवाले एडवर्ड से एक बार उनकी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति लेने लोग गए तो एडवर्ड ने इन्कार कर दिया . उनका कहना था - कि जिस प्यार को उनदोनों ने जिया है , उसे वे कैमरे में नहीं कैद कर सकते और कुछ यूँ हीं देखना उन्हें गवारा नहीं होगा ... तो बेहतर है उनके नहीं रहने पर ही यह कोशिश हो .
प्यार को सम्मान नहीं दे सकते तो चुप रहो .... पर सिर्फ निरादर के ख्याल से (?) किसी का नाम न उछाला जाए तो बेहतर है . एडवर्ड और वार्ड के अधकचरे ज्ञान पर कुछ भी कहने से पहले यह सोचना होगा कि जिस एडवर्ड ने राज्य त्याग दिया ( जो आम बात नहीं ) उसने वार्ड से किनारा क्यूँ कर लिया . आलोचना सोच समझकर हो तो सही है ....
मुझे तो आज भी इस कल्पना मात्र से रोमांच होता है कि उस समय इंग्लैण्ड में कैसी लहर उठी होगी ... सिम्पसन की गति ....... ओह ! आसान नहीं एडवर्ड होना ... यही पंक्तियाँ सही लगती हैं -
ये इश्क नहीं आसान इतना ही समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है..









02 नवंबर, 2011

असत्यमेव जयते



सच हमेशा झूठ के कटघरे में रहता है !
सच का वकील बहुत कमज़ोर होता है
उसका कोई नाम नहीं होता
दम्मे के मरीज़ की तरह
वह हक़ हक़ दलीलें देता है
और फिर रिक्शे से घर लौट जाता है
मद्धम रौशनी में
क़ानूनी किताबें पलटता है ...
और दुबले पतले डरे सहमे गवाहों से
कुछ बातें कर सो जाता है ...
ताउम्र कैद
चेहरे पर बेनामी झुर्रियां
या फिर तारीख से पहले फांसी ...
.............
सही वकील तो झूठ के साथ ऐप्पल दिखता है
चेहरे पर रुआब
लम्बी सी गाड़ी
तिरछी निगाहें बताती हैं
' असत्यमेव जयते '
अनजाने चश्मदीद गवाह की भी अपनी
आन बान शान होती है
गुनहगार बेफिक्री की नींद सोता है
कानून की अंधी देवी के तराजू का पलड़ा
नोटों से झुका रहता है
सच ठन ठन गोपाल बना
कुल्हड़ की चाय संग खींसे निपोरे रहता है
जय जयकार उसी की होती है
हस्ती उसीकी होती है
जो झूठ को सच बनाता है
और सच का तर्पण डंके की चोट पर करता है
यह कहते हुए ...
'असत्यमेव जयते '

31 अक्तूबर, 2011

देखा अपना हश्र !!!



मकड़ी का जाल
हल्का हाथ लग जाए
तो अजीब सी गिजबिजाहट होती है
हटाने में छोटा सा जाला
इधर से उधर सटता है
शक्ल बन जाती है
.....
अब जरा सोचो
नहीं नहीं सोच के देखो
जाला
जैसा खंडहरों में होता है
उससे तुम टकरा जाओ
पूरे शरीर में वह चिपक जाए
चेहरा , हाथ .....
ओह !
........
कई बातें , कई रिश्ते
जाले की तरह जाने अनजाने चिपक जाते हैं
छुड़ाते छुड़ाते
खंडहर से गुजरने की गलती का आभास होता है
शक्ल देखने लायक होती है !
अचानक लगता है ....
हम बुद्धिमान नहीं
रिश्तों की भोथरी दुहाई देते
मकड़ी का भोजन हैं
बस लजीज भोजन
जिसे मौका मिलते मकड़ी चट कर जाए
और कहे
देखा अपना हश्र !!!

29 अक्तूबर, 2011

यदि संभव हो तो



कमज़ोर मन से रिसते
रक्त संबंध के ज़ख्म
लचर दलीलों
राहत भरी हँसी के मध्य
आँखों से मूक टपक रहे थे
हर करवट में कराहट ...
..........
शब्दों की पकड़
रिश्तों की भूख ..."
हमेशा तुमसे सुना , गुना
अपने मन को
बंदिशों से
स्वार्थ से परे रखा .......
पर कितनी सफाई से आज भी तुमने
अगर, मगर में बात कही !!!
ओह !
मुझे विषैले तीरों से बिंध दिया गया
और तुमने कहा -
'मारनेवाले की नियत गलत नहीं थी !'
मारने के बाद मारनेवाले का चेहरा बुझ गया
वह ख़त्म हो गया ...
ये सारे वाक्य
ज़ख्मों पर
मिर्च और नमक का कार्य कर रहे हैं !

मैंने कसकर रिसते घाव को बाँध दिया है
पर वे चीखें
जो मेरे दिल दिमाग को लहुलुहान कर रही हैं
रेशा रेशा उधेड़ रही है
उनका क्या करूँ ?
.........
बिछावन पर गिर जाने से ही दर्द गहरा नहीं होता
उनकी सोचो
जिनके पाँव चलने से इन्कार करते हैं
पर उनको चलना होता है
........
क्यूँ हर बार
इसे सोचूं
उसे सोचूं
इस बार - सिर्फ तुमसब सोचो
यदि संभव हो तो !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

24 अक्तूबर, 2011

दिवाली की शुभकामनायें



बाती की उठान पर
अदृश्य लक्ष्मी का स्वागत है
रौशनी है प्रखर
फिर मेरी आँखों में आंसू क्यूँ हैं
लक्ष्मी की आगवानी
मेरा तिरस्कार
क्या सच है तुम्हारा
और झूठ क्या है ?

( रौशनी जितनी आँखों में भर सकें , भरें - अँधेरा उतना ही कम होता जायेगा ...
दिवाली की शुभकामनायें )

22 अक्तूबर, 2011

मैं कुछ कुछ रह गया था यहीं कहीं !

यह तस्वीर मेरे भईया की है और यह घर , जो अब खंडहर प्रतीत हो रहा है , यहाँ हम १९८० तक रहे , तब पापा वहाँ के स्कूल के प्राचार्य थे , उनके नहीं रहने के बाद हम रांची शिफ्ट कर गए .......- यह तस्वीर तेनुघाट की है, जहाँ भईया अभी कुछ दिनों पहले गए अपने बेटे के साथ , उनकी तस्वीर को देख और उसी दिन उनसे बातचीत करके मेरे भीतर उमड़े भावों ने भईया के मन को शब्द दिए ........








कुछ हँसी कुछ झगड़े
यहीं तो थे कहीं
कुछ रूठना कुछ मनाना
यहीं तो थे कहीं
किसी ने न जाना
मैंने खुद भी नहीं जाना
मैं कुछ कुछ रह गया था यहीं कहीं !
आँखों में घूम गए वो पल छुट्टियों के
जहाँ सभी खड़े होते थे मेरे इंतज़ार में
एक साथ छू लेने को तत्पर
सब अपनी अपनी कहना चाहते थे
बासंती रिश्तों की खुशबू
हमारे हर कमरे , आँगन में फैली होती थी
बेमानी ठहाके लगाते थे हम
हवाएँ भी रुक कर दांतों तले ऊँगली दबाती थीं !
..........
क्या यूँ उजड़ जाते हैं बीते पल
दरक जाती हैं दीवारें
फूलों की जगह उग आती हैं झाड़ियाँ .... !!
कुछ भी हो -
इस पल कोई पुकार मुझे सुनाई दे रही है
.....किसकी पुकार कहूँ इसे
सब तो एक साथ पुकार रहे हैं ...
....
कितनी अजीब बात है -
मैं आया हूँ अपने बेटे के साथ
पर कई अपने साथ हैं -
पापा, अम्मा , बहनें , पत्नी
और यह बेटा गोद में है ....
....
यह क्या अफरातफरी है
अचानक क्यूँ समय समाप्त की घोषणा है
मुझे बड़ी बेचैनी सी हो रही है ...
क्या आज यहाँ से चलने के पहले मुझे हिदायत नहीं मिलेगी
'ठीक से जाना '
!!!
जिसे सुनते 'ओह' ज़रूर कहता था
पर बड़ा सुकून था इस बात का
रोष होता था छुट्टियों के ख़त्म हो जाने का
तो ओह ' कहने का यही बहाना होता था !
..............
चलने से पहले कहता जाऊँ
घर वो घर भले न रहा हो
पर यादों की ईमारत इतनी बुलंद है
कि मैं फिर आना चाहूँगा
क्योंकि यहाँ की दीवारों में जज़्ब वो कहकहे
आज भी सुनाई देते हैं
और यकीनन जब जब हम आयेंगे - सुनाई देते रहेंगे

21 अक्तूबर, 2011

सबसे अलग



जाने कब वह आया
पर जब से देखा जाना
सबसे अलग लगा ....
सुबह सुबह दबे पाँव
दूबों पर अटकी ओस से
मैं अपनी हथेलियाँ भरती हूँ
फिर दबे पाँव उसके सिरहाने जाकर
उसके जलते चेहरे पर
ओस बिखरा देती हूँ ....
छन् ' से आवाज़ आती है
एक धुंआ उठता है
और वह मुस्कुराकर चल देता है !
शाम को जब पंछी
अपनी नीड़ में लौट रहे होते हैं
मैं गोधूलि की लालिमा हथेलियों में भर
उसके आगे बिछा देती हूँ
पर वह मौन अरण्य में डूब जाता है !
मैं सोचती हूँ उसके नाम
हवाओं में लोरियां भर दूँ
पर वह .........
कौन है वह ? क्या चाहता है !
क्या ढूंढता है ....
आखिर पूछ ही लिया - वह ऐसा क्यूँ है?
कंदराओं से ज्यूँ आवाज़ उभरे
ठीक उसी तरह
हाँ बिल्कुल उसी तरह उसने कहा -
"क्या , कौन , क्यूँ ...
बुद्धि मत लगाओ ...
प्रकृति पात्रता ढूंढती है
देती है
उसे समझना और जानना क्या !"
और मेरे सर पर हाथ रख गया .............

17 अक्तूबर, 2011

वो जिंदादिल है !



वो जिंदादिल है
जिंदादिली से जीता है
जिंदादिली की ज़िन्दगी देता है ...
एक हँसी की सौगात में
प्राणप्रतिष्ठा करते हुए
वह कुछ भी बोलता जाता है
मन के बेसुरे सुरों को सुर देने के लिए
शब्दों के अनगिनत वाद्य यन्त्र इकट्ठे करता है
और फिर
दूसरों के लिए उगाहे शब्दों में
बुरी तरह फंस जाता है ....
खाली समय से खेलते हुए
वह खुद से ही अजनबी होता है !
कभी इस शहर
कभी उस शहर
वह ढूंढता है कुछ लम्हें
जो उसका हाल बयां कर सके
कभी इस सड़क
कभी उस सड़क
गैरों में ठहाके लगाता
वह खुद को ढूंढता है !
कितनी अजीब बात है न
रिश्तों को गहराई से जीता हुआ
प्रेम की चाक पर मन के प्याले गढ़ता हुआ
वह बेदिली से प्याले तोड़ता है
चीखता है निःशब्द ....
सुबह होते फिर इकट्ठी करता है
ओस से नम मन की मिट्टी
प्रेम की चाक पर प्याले गढ़ता है
और सहज हो उठता है
फिर से जीने के लिए
जिंदादिली की ज़िन्दगी देने के लिए
मन के बेसुरे सुरों को सुर देने के लिए !!!

13 अक्तूबर, 2011

हाड़ा रानी




- हो न हो राजा के पास नागमणि है
....
नागमणि जिसके पास हो
उसकी शक्ति अपरम्पार होती है
...तभी तो ,
एक एक हँसी छिनकर
हर हथकंडे अपनाकर
वह स्त्री हाड़ा रानी बन जाती है ...
(हाड़ा रानी के प्रेम में पागल था राजा
तो रानी ने अपना सर काटकर भेज दिया
यहाँ राजा के मणि से प्रेम है
तो राजा का सर कलम करना ही होगा )...
.........!
आपस में एक दूसरे से विमुख सेना
रंगमंच पर साथ हो लेती है -
राजा के सेनापति को अपनी ओर मिलाने की नीति चलती है
पर चलो- कोई तो हितैषी है !
और सबसे बड़ी बात कि नाग स्वयं रक्षा में
राजा के शरीर को विष के लेप से सुरक्षित करता है
..... बीण बजा नाग को भी वश में करने की कोशीशें
... मात्र मणि के लिए -
कोई स्वार्थ को प्रेम
और प्रेम को स्वार्थ कैसे कह सकता है !
ज्ञान तो है-
पर कुत्सित सोच से अभिशप्त !
और अभिशप्तता कभी भी फलदायी नहीं होती
जिह्वा पर शहद लगाने से
बोली मीठी नहीं होती
सच की आग को
कोई भी बारिश ---
ठंडी नहीं कर सकती !!!!

11 अक्तूबर, 2011

फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज है !!!???



नो डाउट - फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज है .... सुख हो या दुःख , बाहरी झंझावात हो , आर्थिक सामाजिक समस्या हो तो यह परिवार एक मुट्ठी सा होता है ...... लेकिन प्रचलित फॅमिली बैक ग्राउंड का अर्थ क्या है ? पैसेवाला घर ? ओह्देवाला घर ? माँ , बाप , पति-पत्नी - जहाँ रात दिन कलह होते हैं , जिनके लिपे पुते चेहरे और भारी भरकम पर्स के आगे सामाजिक नियम कुछ और हो जाते हैं . जो अपने बच्चों से बेखबर होते हैं , जिनके बच्चे एक घर की तलाश में गुमराह हो जाते हैं ....
पेचीदा सा लगता यह सवाल मेरे अन्दर हथौड़े मारता है -
चलो सतयुग से प्रश्न उठाते हैं - राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं , तो आप कहेंगे - उस समय यही प्रचलन था . यदि यह सही था तो कालांतर में यह कानून क्यूँ बना कि दो शादी अपराध है ? या उसी युग में राम ने एक पत्नीव्रत क्यूँ लिया ? दशरथ के तीन विवाह , तीनों से हुए पुत्रों का परिणाम था राम का वनवास ... कैकेयी की जिद्द से दशरथ के प्राण गए ,तो उस परिवार को क्या बड़ी चीज कहेंगे ? उर्मिला के लिए कुछ नहीं सोचा गया - पर चलो यह ख़ास बात है ही नहीं !(अबला जीवन हाय ......) ............. सीता के त्याग , सहनशीलता का उदाहरण आप सब हम सब आज तक देते आए हैं , एक रात के लिए किसी की बेटी का अपहरण कलंक - तो सीता तो एक वर्ष रहीं ! अब बताइए कि दूरबीन लगाकर कौन पल पल का हिसाब रख रहा था और यदि रख रहा था तो निःसंदेह रावण सम्मान योग्य है . ...... पर राम ने आम जनता की शंका के निवारण के लिए अग्नि परीक्षा ली - अब आप कहेंगे कि वे भगवान् थे , राम ने पहले ही सीता को अग्नि को सुपुर्द कर सुरक्षित कर दिया था - अब प्रश्न है कि हम भगवान् कैसे बन जाएँ , और यदि यह सत्य था तो सबके सामने परीक्षा का प्रयोजन क्यूँ ? सतयुग में तो सब भगवान् ही थे ! फिर एक धोबी , फिर वनवास - और कोई खोज खबर नहीं .... इस फॅमिली में बड़ी चीज क्या रही ?
अब चलें द्वापर युग में ----- मथुरा नरेश कंस अपनी नृशंस ज़िन्दगी को बरक़रार रखने के लिए अपनी बहन देवकी और उसके पति वासुदेव को बंदीगृह में डाल देता है , क्योंकि ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि देवकी का आठवां पुत्र उसके लिए काल होगा ..... कालकोठरी में वह निर्ममता से देवकी के बच्चों की हत्या करता गया = इस पूरे प्रकरण में परिवार जैसी कोई बड़ी चीज तो नहीं थी .
कृष्ण की अदभुत छवि सर्वव्याप्त है - तुलसी दास ने बहुत ठीक लिखा है- जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी " कृष्ण के रास की अलग अलग परिभाषा है , किसी ने उसे भक्तिभाव से जोड़ा है, किसी ने शरीर से . यदि हम शरीर से जोड़कर देखेंगे तो अनुकरणीय नहीं , न ही कोई परिवार मानेंगे . तो यह व्यापक सत्य गीता से ही समझा जा सकता है , जिसे हम कसौटी पर रखने की ध्रिष्ट्ता नहीं कर सकते !
पर उसी युग में शांतनु पुत्र विचित्रवीर्य की दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।"
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, "हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, "माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, "माता! अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।
अब इस परिवार को आदर्श की किस श्रेणी में रखेंगे , कहाँ उदाहरण देंगे और परिवार सही मायनों में हुआ किसका ..... न शांतनु से संबंध न विचित्रवीर्य से न भीष्म से - तो बंधु कथा तो यहीं से पलट गई ! और अब सूक्ष्मता से देखा जाए तो दासी पुत्र विदुर की ही चर्चा हो सकती है.... विदुर से रिश्ता जोड़ना अधिक श्रेष्ठ है , बशर्ते ध्रितराष्ट्र और पांडू से रिश्ता जोड़ने के ! पांडू पुत्र कह देने से अर्जुन,युद्धिष्ठिर ,भीम, नकुल, सहदेव पांडू पुत्र नहीं होते , कर्ण तो सूर्य पुत्र कहे गए (सही नाम मिला) . उसके बाद इस कहानी में आती है द्रौपदी ..... जो ५ पुत्रों के बीच खाद्य सामग्री की तरह सौंप दी गई . कुंती ने जानबूझकर खुद की तरह कई पुरुषों के मध्य द्रौपदी को कर दिया .... खैर , ये परिवार के नाम पर क्या बड़ी चीज थे जब अपनी शान के लिए इन्होंने द्रौपदी को दाव पर लगा दिया - कृष्ण न होते तो बेड़ा गर्क ही था !
अब आज ऐसी कुंती माँ के संग कौन रिश्ता जोड़ेगा ..... ह्म्म्म , जोड़ेगा , यदि हस्तिनापुर जैसा राज्य हो , वैभव के आगे सारे ऐब निरस्त होते हैं !!!
..............
अब कलयुग के ऐसे पुरुष पात्रों को उठाती हूँ , जिसमें से आपके आसपास की कई छवियाँ उभरेंगी , और आपका मन उसके साथ आपके मन को तौलेगा - हाँ मन को , क्योंकि मन से भागना संभव नहीं ! और ऐसे सवालिया पात्र परिवार की बात अधिक उठाते हैं -
- दहेज़ के नाम पर पत्नी को बेरहमी से मारनेवाले
- बेटी होने पर पत्नी के साथ बुरा सलूक करनेवाले
- अपने अहम् की तुष्टि में पत्नी को घर से निकालनेवाले
- गाली गलौज करनेवाले
- हत्या करनेवाले
- एक एक रोटी का टुकड़ों में हिसाब करनेवाले
- दूसरे की बहू बेटी को गलत नज़रों से देखनेवाले ................. इत्यादि
अब कुछेक महिला पात्रों को भी उठाती हूँ :
- अपने संदेह में पुरुष का जीना दुश्वार करना
- पुरुष के हर कार्य में हस्तक्षेप , अपनी राय देना
- पुरुष के परिवार के सदस्यों के साथ बदसलूकी से पेश आना
- अपनी बात मनवाने के लिए त्रियाचरित्र दिखाना
- बात बेबात कलह करना .................
ऐसे परिवार की बातें आसमानी होती हैं , ये सिर्फ दूसरों से उम्मीदें पालते हैं, उनकी आलोचना में वक़्त जाया करते हैं और सबसे ज्यादा तरीके की बात यही करते हैं . ' फॅमिली फॅमिली ' सबसे ज्यादा यही करते नज़र आते हैं .
फॅमिली बैक ग्राउंड बहुत बड़ी चीज तभी होती है जब वह पैसे से समर्थ हो , रूतबा हो .... मात्र शिक्षा का कोई औचित्य नहीं (शिक्षा का संबंध संस्कार से जुड़ा होता है और रोटी कपड़ा मकान )...पॅकेज से शुरुआत होती है , फिर कौन खूनी है, कौन अय्याश है ... कोई फर्क नहीं पड़ता ,
और आजकल तो लिविंग रिलेशनशिप का ज़माना है - कानूनन ! और भी बहुत कुछ क़ानूनी है तो अब पलड़े का क्या आधार होगा ! किसे बड़ी चीज कहेंगे ....???

08 अक्तूबर, 2011

तर्पण देंगे



( कवि सिर्फ खुद को नहीं संजोता , शून्य में गूंजती ख़लिश को भी पकड़ता है - कुछ ख़लिश सी है इस अव्यक्त चाह में और मेरी पकड़ में )

संबंधों संभावनाओं की मरीचिका बनी रही
कर्तव्यों के ऊँचे ऊंट की थैली में
अपनी जिजीविषा भर
उम्मीदों की हरीतिमा बनाता रहा
अपनों की छोड़ो
गैरों को भी तकलीफ ना हो
ख्याल रखा ....

सूर्य की तपिश को आत्मसात करता गया
रेत के गर्भ में
रक्त भरता गया
भूल गया ---
रक्त का स्वाद लग जाए
तो फिर ..... !!!

परमात्मा ने सब पढ़ाया
सिखाया ...
कई बार पुकारा
कस्तूरी की पहचान दी
पर मैं आम मनुष्यता को जीता गया !
अँधेरा जब जब छाया
मेरा सर्वांग दीपक बन जल उठा
साम दाम दंड भेद की नीति अपना
प्रभु ने अपने होने का विश्वास दिया
जाने क्यूँ !....
मैं मूरख अज्ञानी बना
नट की तरह रस्सी पर चलता रहा
डगमगाया ....
पर हिम्मत !- नहीं हारी !

मेरे इर्द गिर्द भीड़ लगती गई
मेरी आँखें शुष्क होती गईं
क्योंकि भरी भीड़ में कोई शुभचिंतक नहीं मिला
...... मैं करता गया रिक्त होता गया
शिकायतें बढ़ती गईं !
मेरे प्रदीप्त अस्तित्व का दायित्व
सबने अपने ऊपर ले लिया
किसी ने तेल होने का दावा किया
किसी ने बाती ....
रात के तीसरे प्रहर में बिलखता मेरा मन और मैं
जमीन पर सत्य लिखते रहे
' संबंधों संभावनाओं की मरीचिका में
मैं तो तेल विहीन रहा ....
क्या कभी किसी बारिश में इठलाते पेड़ पौधे
मेरे इस सत्य को तर्पण देंगे ? '

05 अक्तूबर, 2011

तो 'कुमाता' ही कही जाऊँगी



आज भी -
मैं घूम रही हूँ अनवरत ...
रक्तदंतिका को साथ लिए
रक्तबीज के रक्त का प्रभाव निरंतर है
आज भी शुम्भ निशुम्भ की महिमा गाते हुए
उसका दूत
मुझसे ध्रिष्ट्ता करता है
साधारण वेशभूषा में जब दूत मुझे नहीं पहचानता
तो तुम मुझे क्या पहचानोगे !
तुम मुझपर राह चलते फिकरे कसते हो
गर्भ में मेरा हिसाब किताब करते हो
अग्नि के हवाले करते हो
और फिर मुझे मिट्टी पत्थर .... से एक आकृति दे
मेरी वंदना करते हो ....
आँखें खोलो ,
गौर से देखो और पहचानो
सर मत झुकाओ ....
जिस ध्रिष्ट्ता से तुम मेरा अस्तित्व कलंकित करते हो
मेरे कोमल अनदेखे रूप का संहार करते हो
उसी ध्रिष्ट्ता से कहो
किस कृत्य के बदले तुम अखंड दीप जलाते हो
अपने सीने पर कलश स्थापित कर
गुमराह भक्तों की भीड़ इकठ्ठी करते हो
और खुद को पवित्र समझते हो ???
.......
चंड मुण्ड , शुम्भ निशुम्भ , रक्तबीज , महिषासुर ...
मैं उनका संहार करने आती हूँ
करती हूँ
करती रहूंगी ...
माना मैं ' माँ ' हूँ
'माता कुमाता न भवति '
पर यदि मैंने असुर पुत्रों को छोड़ दिया
तो मैं 'कुमाता' ही कही जाऊँगी

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...