31 अगस्त, 2010

भ्रम !


बहुत बड़ी धरती मुझे मिली है
मिला है बहुत बड़ा आकाश
इस छोर से उस छोर तक
क्षितिज का साथ है !

28 अगस्त, 2010

मैं कहाँ हूँ !!!


मैं हमेशा खो जाती हूँ
फिर ढूंढती हूँ खुद को
सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
पर कहीं नहीं मिलती...
दम घुटता तो है
पर तलाश जारी है अपनी

कभी-कभी तब यूँ ही
बचपन की कहानी याद आती है
'अकेले कहीं मत जाना
वरना बूढ़ा बाबा
अपनी झोली में पकड़ कर ले जायेगा ...'
सोचती हूँ -
कब निकली बाहर !
कब ले गया बूढ़ा बाबा मुझे !
........
हँसते हो ?
क्या कहा .
ये मेरा भ्रम है , बुद्धू हूँ मैं ?
अगर सच में ये मेरा भ्रम है
तो मैं कहाँ हूँ
कहाँ हूँ !!!

18 अगस्त, 2010

लिखो कुछ मनचाहा



उन लम्हों का हिसाब हम क्यूँ करें
जिन पर होनी की पकड़ थी
हम कितना भी कुछ कहें
हमारी राहें जुदा थीं
तुम आकाश लिख रहे थे
मैं पिंजड़े की सलाखों से
आकाश को पढ़ना चाह रही थी ...

बिना स्याही
तुमने बहुत कुछ लिखा
और बन्द कमरे की स्याह घुटन में
मैंने बहुत कुछ पढ़ा
तुम लिखना नहीं भूले
मैं पढ़ना नहीं भूली
पर अतीत के वे पन्ने
जो अनचाहे लिखे गए
उनको मैं पढ़ना नहीं चाहती
क्या तुम उन शब्दों को मिटा सकते हो ?

यकीन करो -
अभी भी मेरे पास खाली स्लेट है
और कुछ खल्लियाँ
और कुछ मनचाही इबारतें
वक़्त भी है -
तो लिखो कुछ मनचाहा
ताकि इस बार
खुली हवा में मैं पढ़ सकूँ
सबकुछ सहज हो जाये ...





12 अगस्त, 2010

अकेलापन और मेरी साँसें


अकेलेपन की हद थी !
मानसिक सन्नाटे में
पत्ते खड़खडाते थे
अनचाहे लोग जब बोलते
तो सिर्फ उनकी जुबान हिलती नज़र आती
कुछ सुनाई नहीं देता था ...

जंगल में भटकता मन
ख़ास फूलों की तलाश में
लहुलुहान होता गया ...
समझदारी ?
अकेला मन
कभी समझदार नहीं होता
हाँ भीड़ से अलग होता है !

पर क्या सारे अकेले मन
एक से होते हैं?


नहीं -
अकेला मन किसी का साथ चाहता है
अकेला मन शंकाओं से भयभीत होता है
अकेला मन शतरंज की बाज़ी खेलता है

पर भीड़ हो या अकेलापन
ज़िन्दगी रूकती कहाँ है
क़दमों के कुछ निशान काफी होते हैं
जीने के लिए
जैसे मेरे लिए -
ये निशान ही मेरी साँसें हैं !

11 अगस्त, 2010

मेरी उसकी बात ...एक पल की



'कहाँ हैं सात रंग '
'हमारे प्यार में'
'किधर?'
... उसने मेरे माथे को चूम लिया
और मेरे चेहरे पर देखते-ही-देखते
इन्द्रधनुषी रंग बिखर गए

'कहाँ है खुशबू '
'हमारे साथ में '
और उसने मुझे बाहों में भर लिया
मलयानिल मेरे रोम-रोम से बहने लगा

'कहाँ है नज़ाकत '
'हमारे विश्वास में '
और कमर में खूंसे आँचल के सिरे को
उसने हौले से खींच लिया
पूरा शरीर सरगम की धुन पर
थिरक उठा

'कहाँ है मासूमियत '
'हमारे ही प्यार में'
और अपनी हथेलियों से
मेरी आँखों को बन्द किया ...
मैं पूरी हो गई
एक पल में !

09 अगस्त, 2010

सच का सामना ???




सच का सामना ?
किसका सच ?
कैसा सच ?
जिस सच के मायने
अलग-अलग होते हैं ?

एक ही सच !
कहीं सही, कहीं गलत,
और कहीं वक़्त की मांग !

रोटी में कभी चाँद
कभी भूख
कभी हवस !

कोई शरीर को आत्मा बना जीता है
कोई शरीर को माध्यम बना जीता है
कोई शरीर को टुकड़े-टुकड़े में
विभक्त कर जीता है
बात कहीं गलत
तो कहीं सही
कहीं व्यथा बनकर चलती है
किसी की ज़िन्दगी थम जाती है
कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता ...
एक ही कैनवस पर सोच अलग-अलग होती है !

हिसाब अपने दिमाग का होता है
हम अपने दिमागी अदालत में
अपना निजी फैसला देते हैं
मौत की सज़ा सुनाने से पहले भी
सामने वाले की रज़ा नहीं सुनते

प्यार और ज़िद
भूख और प्यास
नींद और सुकून में
बड़ा फर्क होता है
आसान नहीं सच को समझना
तो किस सच का सामना?
और किस आधार पर?

सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
उनको कटघरे में लाना
उन पर फैसला देना
अमानवीय कृत्य है

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...