29 दिसंबर, 2009

एक अलग पगडंडी




तराजू के पलड़े की तरह
दो पगडंडियाँ हैं मेरे साथ
एक पगडंडी
मेरे जन्मजात संस्कारों की
एक परिस्थितिजन्य !
मैंने तो दुआओं के दीपक जलाये थे
प्यार के बीज डाले थे
पर कुटिल , विषैली हवाओं ने
निर्विकार,संवेदनाहीन
पगडंडी के निर्माण के लिए विवश किया
................
दुआओं और संवेदनाहीन के मध्य की मनःस्थिति
कौन समझता है !
समझकर भी क्या?
अनुकूल और विपरीत पगडंडियाँ तो साथ ही चलती हैं !
पलड़ा कौन सा भारी है
कौन कहेगा ?
वे पदचिन्ह - जो दुआओं की पगडंडी पर हैं
या वे पदचिन्ह
जिन्होंने आँधियों का आह्वान किया
और एक अलग पगडंडी बना डाली !

22 दिसंबर, 2009

नज़्म और रूह !


कभी फुर्सत हो तो आना
करनी हैं कुछ बातें
जानना है
कैसी होती है नज्मों की रातें.....
कैसे कोई नज़्म
रूह बन जाती है
और पूरे दिन,रात की सलवटों में
कैद हो जाती है !
पूरा दिन ना सही
एक पल ही काफी है
प्यार को पढ़ने के लिए
नज़्म से रूह
रूह से नज़्म में बदलने के लिए !


13 दिसंबर, 2009

प्राण-संचार


तुम्हारे चेहरे की धूप
तुम्हारी आँखों की नमी
तुम्हारी पुकार की शीतलता
मुझमें प्राण- संचार करते गए ........
दुःख के घने बादलों का अँधेरा
मूसलाधार बारिश
सारे रंग बदरंग थे !
पर तुमने अपनी मुठ्ठी में
मेरे लिए सारे रंग समेट रखे थे
मैं रंगविहीन हुई ही नहीं !
लोग राज़ पूछते रहे हरियाली का
विस्मित होते रहे ....
मैं अपने आत्मसुख की कुंजी लिए
तुम्हारे धूप-छाँव में
ज़िन्दगी जीती गई....
कहने को तुम पौधे थे
पर वटवृक्ष की तरह
मुझ पर छाये रहे
मुझमें प्राण-संचार करते गए ...............

11 दिसंबर, 2009

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी कभी समतल ज़मीं पर नहीं चलती
उस के मायने खो जाते हैं
तूफानों की तोड़फोड़
ज़िन्दगी की दिशा बनती है
रिश्तों के गुमनाम अनजाने पलों से
आत्मविश्वास की लौ निकलती है

08 दिसंबर, 2009

मैं साथ रहूंगी


मैं खुद एक शब्द हूँ
चाहो तो नज़्म बना लो
बना लो अपनी ग़ज़ल
कोई गीत
कोई आह्लादित सोच
कोई दुखद कहानी....
यकीन रखो
मैं साथ रहूंगी

01 दिसंबर, 2009

बस मैं हूँ !


महत्वाकांक्षाओं के पंख लिए
मैं ही धरती बनी
बनी आकाश
हुई क्षितिज
झरने का पानी
गंगा का उदगम
सितारों की टिमटिमाती कहानी
चाँद सा चेहरा
पर्वतों की अडिगता
नन्ही लडकी के घेरेवाली फ्रॉक - सी घाटी
चिड़ियों की चहचहाहट
सूर्योदय का गान
तितलियों के बिखरे रंग
उमड़ती घटायें
प्रातः राग
संध्या की लाली
शरद की चांदनी
टूटता सितारा
तुम्हारी इच्छाओं की पूर्णता
वसुंधरा की हरीतिमा
किसानों का सुख
मोटी-मोटी रोटियाँ
हरी मिर्च और प्याज
.......
सृष्टि का हर रूप लिया
हर सांचे में ढली
महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में
कलम बनी
भावनाओं की स्याही से पूर्ण
सुकून का सबब बनी
.....
मैं यहाँ भी हूँ,
वहाँ भी हूँ
जिधर देखो
मैं हूँ
बस मैं हूँ !

26 नवंबर, 2009

मोक्ष


वो तुम्हारे अपने नहीं थे
जिन्हें साथ लेकर
तुमने सपने सजाये
सूरज मिलते
सब अपनी रौशनी के आगे
एक रेखा खींच ही देते हैं !
शिकायत का क्या मूल्य
या इन उदासियों का ?
'आह' कौन सुनता है ?
वक्त ही नहीं !
गर्व करो-
तुम आज अकेले हो !
साथ है वह सत्य
जिसे कटु मान
तुमने कभी देखा ही नहीं !
भीड़, कोलाहल
आंखों औ कानों का धोखा है
सत्य है 'कुरुक्षेत्र'
जिससे मुक्ति के लिए
मिली प्रकृति.......
धरती,आकाश,पेड़,पौधे
ऊँचे पहाड़,हवाएँ,बूंदें...
इनसे बातें करो
हर समाधान है इसमें !
मृत्यु के बाद-
धरती की बाहें
अग्नि की पवित्र लपटें
पेड़ की शाखाएं
अपने अंक में समेट लेती हैं
रिश्तों से आगे
यही विराम है !
उसके आगे दर्द का सत्य
कटु नहीं कुरूप है
तभी तो
हम उसे जानते नहीं
जानना भी नहीं चाहते.....
उस कुरूपता से
जोड़ा है प्रभु ने मोक्ष द्वार !
पाना है उसे
तो संवारो किसी को...
अपनी निश्छल भावनाएं दो
अंतर्द्वंद से बाहर निकलो
जीते जी अपने संचित पुण्यों में
किसी को शामिल करो !

16 नवंबर, 2009

आकाश को मुठ्ठी में भर लो ..


तुम्हें देखा
तो वह लडकी याद आई
जो फूलोंवाली फ्रॉक पहन
बसंत का संदेशा देती थी
आम्र मंजरों में
कोयल की कूक बन
मुखरित होती थी
जेठ की दोपहरी में
आसाढ़ के गीत गुनगुनाती
रिमझिम बारिश में
कलकल नदी की रुनझुन धार - सी
किसानों के घर की सोंधी खुशबू में ढल जाती थी
शरद चांदनी बन धरती पर उतरती थी ............
आँखें तुम्हारी ख़्वाबों का खलिहान आज भी हैं
गेहूं की बालियाँ अब भी मचलती हैं आँखों में
पर वक़्त ने शिकारी बन
तुम्हें भ्रमित किया है !
एक बात कहूँ?
वक़्त की ही एक सौगात मैं भी हूँ
जागरण का गीत हूँ
जागो
और फिर से अपने क़दमों पर भरोसा करो
उनकी क्षमताएं जानो
और आकाश को मुठ्ठी में भर लो .....

12 नवंबर, 2009

चाँद रोया !!!




उन्हें मालूम था
कुछ सीढियां लगाकर
मैं चाँद से बातें कर लूँगी....
बड़ी संजीदगी से कहा-
'सीढियां रखना उचित नहीं
चोर-उचक्कों का ख़तरा होगा'
........
फिर उनकी नज़र
मेरी सोच के वितान पर पड़ी
इधर-उधर देखते हुए
उन्होंने प्रश्न-चर्चा शुरू की....
अजीबोगरीब प्रश्न
तेज स्वर !
मेरी सोच
खुद की पहचान से विलग होने लगी
हर दिशा
एक प्रश्न बनकर खड़ी हो गई
पर,
चाँद का आमंत्रण पुरजोर रहा .............
उसने चांदनी की सीढियां बनायीं
मुझे खींच लिया..........
अब क्या बताऊँ
चाँद हर रिश्तों से टूटा
मेरी बाहों में फूट-फूटकर रोता रहा
' स्वर्ण कटोरे में
दूध-भात अब कोई नहीं खाता'
कहता रहा,
बिलखता रहा ..............
अनुसंधानों ने उसे भी नहीं छोडा !

06 नवंबर, 2009

!!!




मेरे शब्दों की चोरी हो गयी
कोई दस्तक
कोई नज़्म
कोई ख्वाब
कोई बादल
कोई नाव
कोई रूह बन
हवाओं में तैर रहे हैं
.................
कोई रपट नहीं लिखवाई है अब तक
अपने हैं
शाम होते लौट आयेंगे
मेरे बगैर
उन्हें भी नींद नहीं आती
कोई सपने नहीं बनते !!!

31 अक्तूबर, 2009

कंजूसी कैसी??????????


आपने 'गोलमाल' फिल्म देखी है? उत्पल दत्त का इरीटेशन याद है? नहीं?- तो फिर देखिये ........हाँ,हाँ जिसके नायक अमोल पालेकर थे.
फिल्म बहुत अच्छी है,आपका भरपूर मनोरंजन करेगी,लेकिन इस लेख के द्बारा मैं इस फिल्म को प्रमोट नहीं कर रही हूँ, बल्कि उत्पल दत्त के ऐक्शन को याद कर रही हूँ......उनका " ईईईईईईईईईईईईईईईईईईई " करना आजकल मेरे दिमाग में चलने लगा है.
हम,आप, वे, वो लिखते हैं, बदले में प्रतिक्रया यानि 'टिप्पणी' पाते हैं........बहुत अच्छा लगता है यह देखना कि हमें इतने लोग पढ़ते हैं !!!!!!!!!!!!
पर कई टिप्पणियों को देखकर प्रतीत होता है( जो सच भी है) कि खानापूर्ति की गयी है ..........
'बहुत सुन्दर-बधाई'- बधाई !? इस बधाई ने मुझे हताश कर दिया , इस नज़्म के लिए बधाई क्यूँ? ........मेरी बेटी ने कहा ' दिमाग अभी भी चल रहा है, इसकी बधाई' !
'उम्दा', 'सुन्दर', 'नाइस '.............माना वक़्त कम है,माना सारी रचनाएँ दिल तक नहीं जातीं,पर जिन रचनाओं में दम होता है,संजीदगी होती है, समय की गहरी नाजुकता होती है-उस पर अपनी सहज अभिव्यक्ति को कैसे रोक सकते हैं ! अरे भाई, ईश्वर ने कलम की ताकत दी है, शब्दों की थाती दी है,
कंजूसी कैसी??????????

28 अक्तूबर, 2009

भावनाओं के राग !



शब्द-
एक देश से दूसरे देश
एक शहर से दूसरे शहर
एक दिल से दूसरे दिल तक जाते-जाते
या तो अपने अर्थ
अपनी गरिमा खो देते हैं
या फिर निखर जाते हैं .........
भावनाओं को देखना-समझना
आसान नहीं होता !
जिस पात्र को
हम धरोहर समझते हैं
कई जगहों पर
उसका कोई मूल्य नहीं होता !
पर कवि-
जो भावनाओं के गलीचों से गुजरता है
वह
भावशून्य कैसे हो सकता है !
खूबसूरत भावनाओं की बारिश में
वह अन्भीगा कैसे रह सकता है
शुष्क,सपाट,सतही कैसे हो सकता है !
माना-
समुद्र की लहरें आम तौर पर
शोर करती हैं
अति वर्षा विभीषिका लाती है
........
पर जब नन्हीं बूंदें
गर्म धरती पर
टप से गिरती हैं
तो किसान का घर
सोंधे राग सुनाता है .........



22 अक्तूबर, 2009

मेरी नज़्म............


मेरी नज्मों ने तुम्हें आवाज़ दी है
ओस की तरह तुम आओ
सुबह की पहली किरण में तुम्हें देखूं
आंखों में काजल बनाकर
दिन गुजार लूँ
फिर शरद चांदनी में
तुम्हारी राह देखूं..........!
मेरी नज्मों ने तुम्हें आवाज़ दी है
पर्वतों पर
बादल बन उतर आओ
छू जाओ मुझे
मैं भीग उठूं
फिर तुम
इन्द्रधनुष बन जाओ
और मेरी नज्मों को
सात रंगों की बानगी दे जाओ...........!
मेरी नज्मों ने तुम्हे आवाज़ दी है
अगर की सुगंध में बस जाओ
मेरी पूजा का प्रसाद बन
मुझे आशीष दो
मंत्र बनकर मेरे अन्दर
मुखरित हो जाओ.............!
मेरी नज्मों ने आवाज़ दी है
तुम मेरी नज़्म बन जाओ !!!!!!!!!!!!!!!!!

16 अक्तूबर, 2009

सफाई अभियान और लक्ष्मी का स्नेह,प्रकोप !


(तमाम सुधिजनों को दीपावली की शुभकामनाओं के साथ एक सत्य की सौगात )

साप्ताहिक योजना में
घर की सफाई हो रही है
हर कोने की गन्दगी हटाई जा रही है
छोटी-बड़ी हर दुकानें
सज गई हैं
एक साल की धूल हटाकर
लक्ष्मी की प्रतीक्षा है सबको !
.............................................
पर जो गंदगियाँ पोखर,तालाबों,
नदियों,पहाड़ों, सड़कों के किनारे हैं
उनका क्या होगा?
जो ईर्ष्या,द्वेष,घृणा,उपेक्षा की परतें
हमारे अन्दर हैं
उनका क्या होगा?
इन गंदगियों को पारकर
लक्ष्मी कैसे आएँगी?
क्यूँ आएँगी?
............................
साप्ताहिक सफाई का
सारा नज़ारा लक्ष्मी ने भी देखा है
मंद मुस्कान लिए
मन की परतों को भी जाना है
दीये की लौ
कितनी ईमानदार है
और कितनी भ्रष्ट....
सबकुछ पहचाना है !
.........जहाँ ईमानदारी है
वहां लक्ष्मी वैभव बनकर आएँगी
भ्रष्टाचार की दुनिया में
जहाँ उनको उछाला जाता है
वहां तांडव ही करके जाएँगी !
पटाखों की शोर में
स्व की मद में
शायद तुम्हें अभी पता न चले
पर सारा हिसाब लक्ष्मी करके जाएँगी
चुटकी बजाते
दीवालेपन की घंटी बजाकर जाएँगी !

13 अक्तूबर, 2009

सिर्फ ख्याल




ख्याल ही ...
हमारा संचित धन है ,
उसी से ख़ुशी मिलती है,
आंसू मिलते हैं,
भूख मिटती है....
ख्यालों में सबकुछ
कभी अपना,
कभी जुदा होता है !
ज़िन्दगी तो अक्सर
रेत की तरह फिसलती रहती है,
ख्यालों का दामन ना पकड़ें
तो फिर गूंगे , बहरे हो जाएँगे
ख्याल अपने होते हैं,
सिर्फ अपने......

11 अक्तूबर, 2009

हम....यानि मैं और तुम !




हम साथ चले.....
एक धरती तुम्हें मिली
एक मुझे !
एक आकाश तुम्हे मिला
एक मुझे !
.....मैंने अपनी पूरी धरती को
स्नेहिल कामनाओं से सींचा
प्यार के खाद से
उसे उर्वरक बनाया.......
अपनी पसंद से अधिक
तुम्हारी पसंद का ख्याल किया !
फसल हुई
तो बराबर का हिस्सा किया....
फसल देते वक़्त
उम्मीद भरी नज़रों से
मैंने तुम्हे देखा....
तुम मुंह बिचकाए
मेरे जाने के इंतज़ार में थे !
मैंने तुम्हारी धरती की तरफ देखा
सारी फसल तुम्हारी थी !
मैं कीमत का आकलन करने में
असमर्थ रही
तुम धनाढ्य लोगों में गुम रहे !
यादों को
रिश्तों को
सिर्फ मैंने जीया
तुम तो वर्तमान की पुख्ता धरती पर
'स्व' तक सीमित रहे
मैंने खोया
तुमने पाया !..........
जीवन की शाम है
धरती का एक टुकडा मुझे मिलेगा
तो निःसंदेह
तुम भी एक टुकड़े के ही भागीदार होगे
पर तुम -
अकेले रहोगे,
मेरे साथ -
मेरे सुकून के आंसू होंगे !


08 अक्तूबर, 2009

पगडण्डी


समय कहता रहा,
हम सुनते रहे
कब शब्द उगे हमारे मन में
जाना नहीं
सुबह जब अपने नाम के पीछे
पड़े हुए निशानों को देखा
तो जाना-
एक पगडण्डी हमने भी बना ली !

05 अक्तूबर, 2009

तूफ़ान और मंद हवाएँ............




सोच के तूफानों ने कहा
-क्या जीकर करना !
चलो,
इन तूफानों में ही दम तोड़ लें ....
मैं अवाक !
मेरी कलम-
मेरी ऊर्जा,मेरी जिजीविषा बन साथ है....
सुनते ही,
तूफानों ने रुख मोड़ लिया
मंद हवाएँ बहने लगीं !

28 सितंबर, 2009

एक खेल !




आओ खेलें....
तुम एहसास,
वह दर्द,
वह कागज़,
मैं कलम.............
- दर्द का एहसास
लिख तो दिया है
पर सुनाऊं किसे?.....
दर्द को सुनाना आसान नहीं
कौन समझेगा
और क्यूँ समझेगा?
हर किसी के पन्ने पर
दर्द के धुले अक्षर हैं
उसको पढने,समझने की
नाकाम कोशिश ही बड़ी जटिल है
तो अपने दर्द की क्या बिसात !
............................................
चलो खेलते हैं,
पानी का खेल .............
तुम नाव बनना
मैं पतवार बन जाउंगी
वह पानी,वह भंवर.........
पानी की कलकल सतह पर
पतवार के सिरे से
एक गीत लिखूंगी........
हाँ- तब होगी शाम
और एक धुन लेकर
हम अपने-अपने घोंसले में
लौट जायेंगे
अपने-अपने हिस्से की नींद की खातिर
अपने मासूम सपनों की खातिर
तुम लोरी बन जाना
मैं भी बन जाउंगी लोरी
वह भी,वह भी
...........
तब होगी एक नयी सुबह
नयी चेतना,
नया विश्वास,
नयी उम्मीदें
नए संकल्प.........................


--

24 सितंबर, 2009

आइये हम उनके लिए दुआ करें.........


मेजर गौतम (http://gautamrajrishi.blogspot.com/)
, वह शक्स - जिसकी हाथ में कलम भी, तलवार भी,जिसकी रगों में करुणा भी,दुश्मनों के दाँत खट्टे करने का हौसला भी.......
दुश्मन ने उन्हें घायल करके हमारी बददुआ ली है........आइये हम उनके लिए दुआ करें.........

22 सितंबर, 2009

अकेलापन........


अकेलापन..........
घंटों मुझसे बातें करता है
भावनाओं को तराशता है
जीने के लिए
मुठ्ठियों में
चंद शब्द थमा जाता है...........

15 सितंबर, 2009

प्यार का सार !


दस्तकें यादों की
सोने नहीं देतीं
दरवाज़े का पल्ला
शोर करता है
खट खट खट खट.......
सांकल ही नहीं
तो हवाएँ नम सी
यादों की सिहरन बन
अन्दर आ जाती हैं
पत्तों की खड़- खड़
मायूस कर जाती हैं !
कुछ पन्ने मुड़े-तुड़े लेकर
अरमानों की आँखें खुली हैं
एक ख़त लिख दूँ.....
संभव है दस्तकों की रूह को
चैन आ जाए
हवाएँ एक लोरी थमा जाए
भीगे पन्ने
प्यार का सार बन जायें ...............................

09 सितंबर, 2009

एक प्याली ख्वाब !




एक प्याली ख्वाब
थोडी मीठी
थोडी नमकीन
जब भी पीती हूँ
अन्दर में सप्तसुरों के राग बजते हैं
ढोलक की थाप पर
घुंघरू मचलते हैं
ख़्वाबों की सुनहरी धरती पर
ख़्वाबों का परिधान पहने
महावर रचे पांव थिरकते हैं
एक प्याली ख्वाब....
सौ ख़्वाबों की रंगीनियत दे जाती है !

31 अगस्त, 2009

इमरोज़



सपनों में दबे पांव कोई आता है
मेरी खिड़की पर एक नज़्म रख
चला जाता है
आँख खुलते नज़्म इमरोज़ बन जाती है

19 अगस्त, 2009

आज के लाइफ स्टाइल से आप कितने संतुष्ट हैं???

(शुरू में स्पष्ट कर दूँ ....किसी विषय पर बात करने का अर्थ यह नहीं होता कि उसके दूसरे पहलू नहीं , पर ९५% और % का फर्क होता है...)

आज की लाइफ स्टाइल-'शोर', चलती सुपरफास्ट के सामने से जैसे दृश्य बदलते हैं,वैसा माहौल ! डिस्को,कम कपड़े ,नशे में डूबा समूह ......कहने का दिल करता है,
मैं खो रही हूँ...
किसी सन्नाटे में
विलीन हो रही हूँ !
मौन-
जो सुनाई ना दे किसी को
उसीमें अंकित हो गई हूँ !
आकाश मेरी मुठ्ठी से निकल रहा है
धरती खिसक रही है
बदलते परिवेश की दस्तकों ने
मुझे पहचानने से इन्कार कर दिया है !
किसे आवाज़ दूँ?
और कैसे?
स्वर गुम हो गए हैं....
जहाँ तक दृष्टि जाती है
घर-ही-घर हैं
पर दूर तक बन्द दरवाज़े ...
कोलाहल में भी,
अंधे,गूंगे,बहरों की बस्ती -सी लगती है !
जहाँ खड़ी हूँ
वह जमीन अपनी नहीं लगती
परिवेश अपना लगता है
आईने में
अपना चेहरा भी
अजनबी-सा लगता है !!!!!!!




यह सच है कि वक्त की रफ़्तार तेज़ है,पर रिश्तों का मापदंड क्यूँ बदल गया ?इन पंक्तियों का अर्थ आज भी है -"सत्यम ब्रूयात,प्रियं ब्रूयात,


ब्रूयात सत्यम अप्रियम "


और आज अप्रिय सत्य ही बेबाकी से बोलने में शान है,नंगा सत्य प्रस्तुत करने की होड़ है..........
हो सकता है , मैं विषय के सिर्फ एक पहलू पर गौर कर रही होऊं ,इसलिए अपने परिचितों के मध्य अपना सवाल रख दिया और ये रहे उनके क्रमवार विचार...................




सरस्वती प्रसाद (http://kalpvriksha-amma.blogspot.com/)


माना ये सच है - 'परिवर्तन होता इस जग में
प्रकृति बदलती है
दिन की स्वर्ण तरी में बैठी
रात मचलती है'
फिर भी, हद हो गई ! आज की लाइफ स्टाइल को देखकर लगता है भारत में अमेरिका उतर आया है. सर से पांव तक आधुनिकता की होड़ लगी है. नैतिकता की बातें विस्मृत हो चुकी हैं. वर्जनाएं रद्दी की टोकरी में फ़ेंक दी गयी हैं . अश्लील क्या होता है-कुछ नहीं . संस्कार की बातें दकियानूसी लगने लगी हैं. एक-दूसरे को लांघकर आगे निकल जाने की ऐसी होड़ लगी है,कि फैलती कामनाओं के बीच भावनाएं दब गयी हैं. जीने को अपने निजी विचार , अपना घेरा है . इसमें औरों का कोई स्थान नहीं . संबंधों की एक गरिमा हुआ करती थी,आज के सन्दर्भ में उसका कोई स्थान नहीं. वेश-भूषा , खान-पान जीवनचर्या में भारत महान कहीं नज़र नहीं आता . जिस हिंदी पर हमें नाज था,वह पिछडे लोगों की भाषा बनती जा रही है .शिष्टता , आदर-सम्मान,व्यवहार,बोली- जो व्यक्ति की सुन्दरता मानी जाती थी,उस पर आडम्बर का लेप लग गया है. लज्जा, जो नारी का आभूषण था , आज की लाइफ स्टाइल में कुछ इस तरह गुम हुआ कि कहीं भीड़ में जाओ तो लगता है कि अपना-आप गुम हो गया है और खुद की आँखें ही शर्मा जाती हैं . भागमभाग का ऐसा समां है कि किसी से कुछ पूछने का समय है और अपनी कह सुनाने की कोई जगह रही.....
आलम है - ' आधुनिकता ओढ़कर हवा भी बेशर्म हो गई है
उसकी बेशर्मी देख गधे
जो कल तक ढेंचू-ढेंचू करते थे
आज सीटियाँ बजाने लगे हैं
गिलहरी डांस की हर विधा अपनाने को तैयार है
पर कुत्तों को अब किसी चीज में दिलचस्पी नहीं
वे अपनी मूल आदत त्याग कर
भरी भीड़ में सो रहे हैं
समय का नजारा देखते जाओ
रुको नहीं , चलते जाओ
अब 'क्यों' का प्रश्न बेकार है !




नीता कोटेचा (http://neeta-myown.blogspot.com/)


आज की लाइफ स्टाइल ये है...कि सब अपने अपने काम में व्यस्त है...किसी के पास किसीके लिए वक्त नहीं है...सब अपनी परेशानियों में डूबे हुए हैं ..या फिर अपनी दुनिया में अच्छे से अच्छे रंग भरने में लगे हुए है..पहले लोग दुसरो के लिए जीते थे..आज सिर्फ खुद के लिए.. आज कोम्पुटर ने और मोबाइल ने परायों को करीब ला दिया है और अपनों को दूर कर दिया है...कभी कभी लगता है की अच्छा है कि ये मशीन बना ..अगर यह ना होता तो बहुत सारे लोग बीमार हों जाते..डिप्रेशन के शिकार हो जाते..पर क्या ये होने के बावजूद लोग इस बीमारी के शिकार नहीं है..यहाँ देखा है कि सब लोग प्रेम को तरसते है...शायद मै भी उसीमे से एक हूँ ..पर ऐसा क्यों..हमने कभी अपने बड़ों के मुंह से सुना था कि घर में प्यार ना मिले तो बच्चा बाहर जाता है..तो क्या हम में से बहुत सारे लोगों को प्रेम नहीं मिला..या काम पड़ रहा है..
पता नहीं चल रहा कि हम गलत हैं या सही हैं ॥पर सब कुछ मिलने के बाद भी एक अधूरापन महसूस होता है..लगता है कि सब को खुद की जिन्दगी जीनी है...ना हम उसमे दखलंदाजी कर सकते है..और ना हम उनको सलाह दे सकते है..तो फिर हमारा काम क्या है...और हम भी चुपचाप अपने रास्ते खोजना शुरू करते है..जिससे बाकि लोगो को तकलीफ होती है...तो हम क्या करे।??वापस जिन्दगी एक सवाल बनके खड़ी हों जाती है..कि क्या हम संतुष्ट है??




प्रीती मेहता (http://ant-rang.blogspot.com/)


आज पिज्जा एम्बुलेंस से फास्ट पहुचता है घरडिस्को, पब्, फास्टफूड, ८० gb का आई - पॉड, N सीरीज़ का मोबाइल, लैपटॉप, ब्रांडेड कपड़े, जूते इत्यादि .... शायद यही पहचान बन गई है आज की... आज के बच्चेबे-ब्लेडखेलेंगे, परलट्टूयागिल्ली - डंडानहीं. जगह जगह से फटे कपड़े - फैशन का पर्याय बन जाते है, बडों को प्रणाम करना डाउन मार्केट है. आज उपरी दिखावा ही सब कुछ है .ज़माने के साथ कदम मिलाना अच्छी बात है, पर यह भी देखा जाये कि कदम मिलाते हुए कदम बहक ना जायेकुछ बाते है जो आज की लाइफ स्टाइल में अच्छी भी हैजैसे कि आज का युवा वर्ग बहुत प्रैक्टिकल है. सकारात्मक है , आगे बढ़ने की चाह है . आज की सोच मर्यादित नहीं रह जाती , उसे कई माध्यमो से लोगो तक आसानी से पहुचाया जा सकता है
इसलिए …. कह सकते है की आज की life style 50% नकारात्मक तो 50% सकारात्मक भी है

H.P. SHARMA

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !

डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !

दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !

चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !


Alok srivastava <coolaries26@gmail.com>


वर्तमान समय मे जिस लाइफ स्टाइल को आज का युवा वर्ग आत्मसात किये हुए है, वह कही से भी लम्बी दूरी के सोच के अनुकूल नहीं है| आज का जीवन स्तर पूरी तरह से मै पर निर्भर है, केवल अपनी आवश्यकता और उसके समाधान तक की सोच है, आज के समय मे लोगो की| उपभोक्तावाद इस कदर हावी है की लोग अब उधार की ज़िन्दगी मे ज्यादा विश्वास करते है, और अपना मानसिक सकूं खो देते है उस उधार को पूरा करने के जद्दोजहद मे| उन्हें हर वह चीज़ चाहिए जिसे वो दुसरे के पास देखते है, भले ही वह उनके लिए आवश्यक हो अथवा ना हो पर चाहिए ही चाहिए| आज के समय मे वस्तु इंसान से ज्यादा महत्वपूर्ण है |वस्तु से प्यार है लोगो को इंसान से नहीं|
सुबह से लेकर रात तक भागता रहता है इंसान, और देर रात जब थक कर इंटो की चाहरदीवारी(घर तो रहा ही नहीं अब) के भीतर पहुँचता है, तो उसके पास स्वयं तक के लिए समय नहीं बचा होता और फिर कल के लिए सोचते हुए सो जाता है|
अगले दिन पुनः वही दिनचर्या|
पिपासा है की शांत होने का नाम ही नहीं लेती और उसको शांत करने के फेर मे इंसान सबकुछ भूल कर लगा पड़ा है|
एक समय मे जो संतोषम परम सुखं की बाते करता था आज लालच मे अँधा हुआ पड़ा है |

बड़े होने के दो तरीके है :
एक आप खुद को बड़ा बनाओ और दूसरा बाकी लोगो को छोटा कर दो|
आज के समय मे दूसरा वाला रास्ता ही ज्यादा प्रचलन मे है
दुसरो को गिरा के, नीचा दिखा के, हतोत्साहित करके, ज्यादा सुख की अनुभूति होती है |
आगे बढ़ने की लालसा इतनी तीव्र है, की उसके लिए कोन से रास्ते का चुनाव किया है इसका कोई महत्त्व नहीं है|
सबकी नज़रे केवल अंतिम परिणाम पर टिकी रहती है,
कोई ये नहीं जानना चाहता की यह परिणाम कैसे और क्यूँकर प्राप्त किया गया है|

हमें तो नहीं लगता की आज के लाइफ स्टाइल से कोई भी संतुस्ट है
सभी की अपनी अपनी भौतिक लाल्साये है और वह उन्हें पूरा करने के लिए लगा पड़ा है
इस धरती के वासियों की कर्म प्रधान सोच अब परिणाम प्रधान हो गयी है


Vinita Shrivastava <vinnishrivastava1986@gmail.com>

कई बार मन् में उठता है सवाल कि क्या लिखूँ?
क्या लिखूँ कि आधुनिक रहन सहन में,
भारतीय संस्कृति दिनों दिन लुप्त होती जा रही है,
या लिखूँ .......
विदेशी सभ्यता के बारे में ,
जिसमें हमारी पीढियां लुप्त होती जा रही है |
क्या लिखूँ मै
क्या लिखूँ कि आधुनिक रहन सहन को बढावा दे रहे सब ,
या लिखूँ कि हम अपने आपको खो रहे हैं
क्या लिखूँ मैं
क्या लिखूँ ,
-हिंदी की महानता
जो किताबो में सिमट गई है
या लिखूँ ......
अंग्रेजी के बारे में
जो भारतीयों के शरीर में लहू के सामान घुल गई है
क्या लिखूँ मै......
क्या लिखूँ मै .............


लगभग 60% !!!!!!!!!!!!!
सबसे बडी बात है-- कि , आप आजाद हैं..
तो सोच सकते हैं, राय ले सकते हैं, कोशिश कर सकते हैं,
ऐसा पहले नहीं था.....................................................
माना कि हवा ,पानी , खाना शुद्ध था...पर कितने
लोगों को मय्यसर होता था........आज आपके पास.....
विकल्प है..आज आप अपनी लाइफ स्टाइल बना सकते हैं.........


मंजुश्री ,


प्रश्न है कि क्या हम अपने मौजूदा हालात से संतुष्ट हैं.......जहाँ तक संतुष्ट होने का सवाल है तो आदमी कभी भी,किसी भी काल में अपने वर्तमान हालात से संतुष्ट नहीं रहा है . असंतोष सड़े-गले
रीति-रिवाजों का ,परम्पराओं का ,अंधविश्वासों का ,..... इन सारे बन्धनों से मुक्त होने के लिए वह निरंतर संघर्ष करता रहा ...और धीरे-धीरे उसने अनेक बेडियाँ तोडीं ,अनेक बन्धनों से आनेवाली पीढी को मुक्ति दिलाई . लेकिन हर नई पीढी को लगा कि उसे और मुक्ति चाहिए,और आज़ादी चाहिए. आज़ाद होते-होते आज मौजूदा पीढी जीवन के हर मूल्य से आज़ाद हुई नज़र आती है . सभ्यता,संस्कृति की दुहाई देनेवाले देश में संस्कृति मखौल का विषय बन गई और सभ्यता धुंधली पद रही है. पहनावे में,बोलचाल में,रहन-सहन में हर गलत चीज को मान्यता मिल रही है . ऐसे में भला कोई संतुष्ट कैसे हो सकता है !!!!!!!


शोभना चौरे (http://shobhanaonline.blogspot.com/)


आज कि लाइफ स्टाइल से कितने संतुष्ट है
कोनसी लाइफ स्टाइल ?है आज हमारे पास काकटेल है पूरब और पश्चिम का |
न ही पूरब अपना प् रहे है और न ही अपना छोड़ पा रहे है और छोड़े भी क्यों?हमारी अपनी जीवन शैली है |किन्तु आज जबकि हर दूसरे परिवार का कोई नाकोई व्यक्ति विदेश में जा बसा है या आता जाता है तो वहा कि
संस्कति रहन सहन अपनाना स्वाभाविक हो जाता है |फिर भी वः अपनी जडो को नही भूलता |
पिछले डेढ़ दशक में मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चो को निजी संस्थानों में नौकरी के अच्छे अवसर मिले और वे अपनी योग्यता के बल पर आर्थिक रूप से सक्षम हुए जिसके लिए उन्हें अपने घर से मिलो दूर रहना पडा |और दिन के
रोज १२ -१२ घंटे काम करना होता है तो उनकी जीवन शैली निश्चित रूप से अलग होगी \अपने समाज से दूर उसका एक नया समाज बन जाता है अपने सामाजिक कार्यक्रमों में चाहकर भी वो शामिल नही हो पाता |और अपनों से दूर हो जाता है तब आधुनिक संचार मध्यम ही उसका सहारा बन जाते है और उसका वो आदी हो जाता है |या यु भी कह सकते है वो संतुष्ट हो जाता है अपनों से बात करके |तब उसे जरुरत नही पडती कि वो अपने आसपास झांके |
और एक धारणा बन जाती है हम अपने पडोसियों को अनावश्यक क्यों तकलीफ दे ||और वह नही चाहता कि कोई उसके निजी जीवन में दखल दे और वह भी किसी के निजी जीवन में दखल नही देता |
और मेरे हिसाब से इसके मूल में आर्थिक समर्थता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती है |


लोग छोड़ जाते है रोनके
हम तो शून्य भी साथ ले जाते है |

कहने को जिन्दगी हंसती रही
आँखों में आंसू तैर जाते है |

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...